श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 09
सूत्र - 05,06
सूत्र - 05,06
साधुओं की गोचरी वृत्ति। साधु सिर्फ औषधि स्वरूप आहार ग्रहण करते हैं। साधु आहार करते हुए भी निर्जरा करते हैं। साधु का खड़े होकर आहार करना भी एक अलौकिक क्रिया है। आदान निक्षेपण समिति। उत्सर्ग समिति। दस धर्म का वर्णन। क्षमा धर्म।
ईर्या-भाषैषणा-दान-निक्षेपोत्सर्गा: समितयः॥9.05॥
उत्तम-क्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागा-किञ्चन्य ब्रह्मचर्याणि धर्म:॥9.6॥
14, oct 2024
Saroj
Jabalpur
WINNER-1
Nitesh Kumar jain
Jaipur
WINNER-2
BHAVYA JAIN
Jaipur
WINNER-3
साधु द्वारा अपने पिच्छी-कमण्डलु आदि को देखभाल पूर्वक उठाना-रखना कौनसी समिति है?
ईर्या समिति
भाषा समिति
आदान निक्षेपण समिति*
उत्सर्ग समिति
संवर और निर्जरा के प्रकरण में आज हमने जाना कि
प्रमाद रहित होकर,
यत्नाचारपूर्वक भोजन करना,
एषणा समिति होती है।
इसकी पहली वृत्ति गोचरी वृत्ति है
जैसे गाय चरते हुए,
जंगल की शोभा नहीं देखती,
बस जो लेना है वही देखती है
और पेट भर कर चली जाती है।
ऐसे ही बस भोजन को देखते हुए,
शोधन करते हुए,
घर आदि की साज-सज्जा नहीं देखते हुए
भोजन करना गोचरी वृत्ति होती है।
दूसरी वृत्ति उदराग्नि प्रशमन वृत्ति है
यानी बस उदर की अग्नि शान्त करने के लिए भोजन करना।
जैसे हम रोग को दूर करने के लिए
औषधि लेते हैं,
वैसे ही साधु, धर्म ध्यान में बाधा डालने वाली
उदराग्नि या क्षुधा रोग रूपी अग्नि
की वेदना दूर करने के लिए
औषधि स्वरूप limited आहार करते हैं।
तीसरी वृत्ति गर्तपूरण वृत्ति है
यानि साधु बस उदर रुपी गड्ढा भरने के लिए आहार लेते हैं
जिससे दिन भर निराकुलता बनी रहे।
वे food का taste नहीं देखते
बस उदराग्नि शांत करने और गर्तपूरण के लिए आहार लेते हैं
चौथी वृत्ति अक्ष मृक्षण वृत्ति है
जैसे गाड़ी की mobility बनाए रखने के लिए
बीच-बीच में पहियों को ओंगन दिया जाता है
ऐसे ही साधु रत्नत्रय रूपी आत्मा को आगे बढ़ाने के लिए,
शरीर में ओंगन स्वरूप भोजन रुपी oil डालते हैं।
साधु छह कारणों से भोजन लेते हैं
अकारण नहीं लेते।
ये उद्देश्य हैं- रत्नत्रय की आराधना,
षट-आवश्यक पालन,
ध्यान,
स्वहित,
परहित,
वैयावृत्ति।
अन्य उद्देश्य से भोजन करना समिति में नहीं आता।
साधु के भोजन में भी बहुत conditions रहती हैं।
वे दिन में एक बार,
खड़े होकर,
46 दोषों से रहित भोजन लेते हैं
जैसे प्रमाण दोष से रहित
यानि limited भोजन करना
क्योंकि प्रमाण से अधिक होने पर स्वाध्याय,
ध्यान आदि क्रियाओं में आलस्य आएगा।
इसी तरह
उद्गम,
उत्पादन,
एषणा,
संयोजना,
अंगार,
धूम, आदि दोषों से रहित होकर,
एषणा समिति का पालन किया जाता है।
इससे पाप का संवर और निर्जरा होती है।
इन वृत्तियों के संकल्प के कारण
छठवें-सातवें गुणस्थानवर्ती साधु
भोजन करते हुए भी इतनी निर्जरा कर लेते हैं,
जितना पञ्चम गुणस्थानवर्ती देशव्रती श्रावक
सामायिक के समय पर
या रातभर तपस्या करते हुए भी,
नहीं कर सकता।
भोजन जैसे प्रमाद की क्रिया में भी साधु अप्रमत्त ही रहते हैं।
क्योंकि समिति का मतलब ही अप्रमत्त होना होता है।
प्रमत्त गुणस्थान कब हो जाएगा यह तो पता नहीं पड़ता,
लेकिन वे हमेशा सावधान रहते हैं
साधु का नियमपूर्वक वृत्ति से भोजन करना अलौकिक क्रिया है।
केवल दिगम्बर साधु को ही,
खड़े होकर के,
और पाणि पात्र में, भोजन करने का नियम है।
ये विशेष नियम दिगम्बरत्व की अलौकिकता बताते हैं।
इनका विस्तार से वर्णन हम मूलाचार आदि ग्रन्थों से पढ़ सकते हैं ।
चौथी आदान निक्षेपण समिति में
जीव रक्षा और,
प्राणी संयम के भाव से,
पिच्छी, कमण्डलु, शास्त्र आदि उपकरणों को
उठाते-रखते हुए,
देखभाल पूर्वक प्रवृत्ति करते हैं।
पाँचवीं उत्सर्ग समिति में
साधु अपने शरीर के मल-मूत्र, नख-केश आदि का त्याग,
जीव जन्तु से रहित स्थान पर करते हैं।
इस तरह समितियाँ साधु को निरन्तर पाप रहित रखती हैं।
समितियों के बाद हमने दस धर्मों को जाना
ये सभी प्राणियों के कल्याण के लिए हैं।
ये साधु के आभूषण हैं
जिन्हें वे हमेशा धारण रखते हैं
और इनसे विशेष रूप से संवर करते हैं।
सबसे पहले उत्तमक्षमा आता है
क्रोध की उत्पत्ति नहीं होना क्षमा कहलाता है।
संस्कृत में ‘कष् योगे क्ष’ सूत्र के अनुसार-
क्ष से पहले ‘क’ का उच्चारण होता है
यानि छतरी वाला ‘छ’ - छमा नहीं
क्षत्रिय वाला ‘क्ष’ - क्षमा होता है।