श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 24
सूत्र - 19
Description
Psychologist की therapy। प्राणापान और श्वासोच्छवास। श्वास निकालना प्राण हैं। श्वासोच्छवास पुद्गल का ही उपकार है। जीव कहाँ है? सिद्ध लोक की वर्गणाओं से सिद्ध भगवान बाधित नहीं होते। व्यवहार और निश्चय नय कब लागू होता है?
Sutra
शरीरवाङ्मन: प्राणापाना: पुद्गलानाम्॥5.19॥
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WINNERS
Day 24
04st May, 2023
सागर चंद जैन
कोटा
WINNER-1
Saroj Salgia
Gurgaon
WINNER-2
Anitha Soni
Ajmer
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
प्राणापान में प्राण का अर्थ होता है-
फेफड़ों से श्वास निकलना *
फेफड़ों में श्वास ग्रहण करना
चेतना प्राण
श्वासोच्छवास
Abhyas (Practice Paper):
Summary
सूत्र उन्नीस में हम पुद्गल के जीव पर उपकार जान रहे हैं
हमने जाना कि मन पौद्गलिक है
क्योंकि पुद्गल के कारण से इसका अभिघात भी होता है और पराभव भी
जैसे बेहोशी का injection लगाने पर यह पता नहीं होता कि मैं कहाँ हूँ?
यह मन का घात है
जो पुद्गल injection लगाने से हुआ है
पराभव में मन को दबा देते हैं
जैसे भांग खाने के बाद, मन तो है लेकिन व्यक्ति बोलता भांग के प्रभाव में है
जो बोलना चाहिये, वह नहीं बोल पाता
हमने जाना कि मन की शक्ति से ज्यादा ग्रहण करने से
या मन कमजोर होने से
उस पर दूसरी चीजों का ज्यादा प्रभाव पड़ने से
मन का अभिघात हो जाता है
और व्यक्ति depression में आ जाता है
Depressed व्यक्ति
कभी सही, कभी गलत बोल सकता है
सोते समय भी मन के माध्यम से बड़-बड़ा सकता है
उसके इन्हीं बोलने आदि के direction से
psychologist उसके अन्दर के pressure को पकड़कर treatment देते हैं
सूत्र में उपकार का अर्थ उपकार से भी है
और उस माध्यम से भी है जिससे क्रिया हो रही है
जैसे- बोलने या सोचने की क्रिया पुद्गलों के माध्यम से हो रही है
तो ये पुद्गल का उपकार है
जैन सिद्धान्त हर चीज को स्वीकारता है
गुरू का उपकार भी आगे स्वीकारा जायेगा
उपद्गल का अन्तिम उपकार है - प्राणापान यानि श्वासोच्छवास
ये सब में होता है, इसलिये अन्त में रखा गया है
शरीर प्रारम्भ में है और प्राणापान अन्त में
प्राण process of exhaling है
अर्थात शरीर के फेफड़ों आदि से बाहर निकाली जानेवाली श्वास
और अपान process of inhaling है
अर्थात बाहर से शरीर के फेफड़ों आदि में भरने वाली श्वास
लोग इसे अक्सर उल्टा समझते हैं
श्वास-उच्छवास में
श्वास में प्राण बाहर निकालते हैं
और उच्छवास में ग्रहण करते हैं
योग और meditation के लिए यह बहुत अच्छी पद्धति है
क्योंकि श्वास बाहर निकालने से ही हम श्वास ग्रहण कर सकेंगे
जितना तेजी से श्वास को बाहर फेकेंगे उतना ही ज्यादा श्वास ले भी सकेंगे
अगर श्वास बाहर कम जाएगी तो लेने में भी कष्ट महसूस होगा
श्वासोच्छवास भी पुद्गल का उपकार है
क्योंकि श्वास पुद्गल से बाधित होती है
जैसे किसी की नाक बंद करने से या गला दबाने से
या तेज हवा, दुर्गन्ध या धुआं आदि में श्वास बाधित होती है
हमने जाना जब शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छवास पुद्गल से बाधित हैं
तो इन्हीं के आश्रित, न दिखने वाला जीव भी पुद्गल से बाधित होगा
शरीर मिटने पर, श्वासोच्छवास रुकने पर जीव भी शरीर छोड़ गया
वह बाधित हो गया
कथन्चित जीव भी पुद्गल के साथ हो गया, मूर्तिक हो गया
जीव एकान्त रूप से अमूर्तिक नहीं है
क्योंकि अमूर्तिक कभी पुद्गल से बाधित नहीं होता
यदि अमूर्तिक पुद्गल से बाधित होता
तो सिद्ध भगवान भी सिद्ध लोक में मौजूद आहार, भाषा आदि वर्गणाओं से बाधित हो जायेंगे
लेकिन अमूर्त होने से, ये सब बाधा उनके लिए नहीं हैं
संसारी जीव में मूर्तपना है अतः उसमें सब बाधायें हैं
मुनि श्री ने व्यवहार और निश्चय को सरलता से समझाया कि
जब तक पर से बाधित है तब तक व्यवहार है
जब पर से बाधित होना छूट जायेगा तो निश्चय हो जायेगा
व्यवहार-निश्चय के confusion में पड़कर, आत्मा को अमूर्तिक समझकर
हम कई सवालों पर मौन हो जाते हैं
जैसे आत्मा कर्म क्यों बांधती है?
सुख-दुःख कैसे भोगती है?
पुद्गल से बाधित क्यों होती है ?
ये जड़ की क्रियाएँ जीव में तो होती हैं ?
पर सिद्ध जीव में क्यों नहीं होती?