श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 20
सूत्र - 7
सूत्र - 7
भव्य और अभव्यपना कर्म निरपेक्ष हैं l अनन्त गुण अभव्य के भी पास है l एक बार सम्यक्त्व हो गया तो मोक्ष मिलता ही है l सिद्ध सुख पर श्रद्धा करने वाला ही भव्य है l अभव्यों का उदाहरण देकर पण्डित चारित्र की परम्परा को ही नष्ट कर रहे हैं l सिद्ध-भगवान में केवल जीवत्व ही एक पारिणामिक-भाव रह जाता है l
जीव-भव्याभव्यत्वानि च ।l७।l
मनोज जैन
शामली
WIINNER- 1
Sheela Rokade Jain
Bhandup, Mumbai
WINNER-2
ममता जैन
शामली
WINNER-3
सिद्ध-भगवान में कौनसा पारिणामिक-भाव रह जाता है?
जीवत्व *
अजीवत्व
भव्यत्व
अभव्यत्व
हमने जाना भव्यपना और अभव्यपना कर्म निरपेक्ष हैं जिनमें कर्म के उदय, क्षय या क्षयोपशम की जरूरत नहीं है
ये स्वभाव हैं
एक तरह से भव्यत्व और अभव्यत्व जीव के जीवत्व परिणामिक भाव में ही दो भेद हैं
अभव्य की आत्मा के पास भी अनन्त-गुण, अनन्त-शक्ति, केवलज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, क्षायिक सम्यग्दर्शन आदि होते हैं लेकिन फिर भी उनके अन्दर कुछ प्रकट नहीं होगा
एक बार सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के पश्चात् भव्य जीव का अनन्त-काल का संसार सिर्फ अर्ध-पुद्गल-परिवर्तन रह जाता है
उसे नियम से इस काल के अन्त तक निमित्त मिलकर मोक्ष हो जाएगा
हमने जाना कि हमारा focus तो इस बात पर होना चाहिए कि हम भव्य हैं कि अभव्य हैं क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि प्राप्त कर मोक्ष जाने की परिणति अन्तरंग में अपने ही उपादान से आती है
पंचम-काल में कोई अवधिज्ञानी या मनःपर्यय ज्ञानी नहीं हैं जो हमें भव्यता के विषय में बता सके जैसा कि आदिनाथ भगवान् के दसवें पूर्व भव में महाबल के मंत्री को बताया था
लेकिन आचार्य कुन्द-कुन्द देव ने प्रवचनसारजी में भव्य जीव की पहचान के लिए बताया
कि जो तत्त्व को सुन करके या सिद्धों के सुख के बारे में सुन करके, उसका श्रद्धान कर लेता है
कि ऐसा ही सिद्धों का सुख है और यही सुख वास्तव में सुख है, तो वह जीव भव्य है
और जो श्रद्धान नहीं करता वह अभव्य है
हमें अभव्यत्व की अपेक्षा न रखते हुए अपने अन्दर हमेशा भव्यपने का विचार करना चाहिए
लेकिन कुछ पंडित अपने उदाहरणों को अभव्यों पर केन्द्रित करके चारित्र की परम्परा को ही नष्ट कर रहे हैं
जैसे वे कहते हैं अभव्य जीव तो नौवें ग्रैवेयक तक चला जाता है या
महाव्रत तो अभव्य भी धारण कर लेता है लेकिन तत्त्व ज्ञान के अभाव में सम्यग्दर्शन नहीं होता अतः पहले सम्यग्दर्शन करो
हमें इस तरह के negative thought वाले ग्रंथो से बचना चहिये
हमने जाना कि सिद्ध-भगवान में केवल एक जीवत्व पारिणामिक-भाव रह जाता है
उनमें अब भव्यता भी नहीं रहती
वो तो प्रकट हो गयी
हमने जाना कि जिन पारिणामिक-भावों के माध्यम से जीव अन्य द्रव्यों से पृथक हो जाता है जैसे जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व उन्हें असाधारण लक्षण कहते हैं
वहीं अस्तित्व, वस्तुत्व और प्रमेयत्व जैसे गुण जो सभी द्रव्यों में पाए जाते हैं उन्हें साधारण लक्षण कहते हैं
अजीव द्रव्य का भी अस्तित्व है
और प्रमेयत्व भी क्योंकि वह किसी के ज्ञान में आता है
सूत्र में "च" शब्द से सभी असाधारण और साधारण भावों को भी ग्रहण करना चाहिए