श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 05
सूत्र -03,04
सूत्र -03,04
आत्मा कैसे पवित्र हुई ? अशुभ को छोड़ो शुभ में लगो। आज शुभ भाव की ही जरूरत है। कषाय कम होगी तो कर्म बंध हल्का होगा है। ईर्यापथ आस्रव का क्या अर्थ है?
शुभ: पुण्यस्याशुभ: पापस्य।।6.3।।
सकषाया-कषाययो: साम्परायि-केर्या-पथयो:।।6.4।।
4th Aug, 2023
Rekha Jain
Delhi
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Beena Jain
Moradabad
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Nikita Jain
Jhalrapatan
WINNER-3
यथाख्यात चारित्र का प्रारंभ कौनसे गुणस्थान से होता है?
चौथे गुणस्थान से
दसवें गुणस्थान से
ग्यारहवें गुणस्थान से*
तेरहवें गुणस्थान से
हमने जाना कि संसार अशरण, अनित्य, दुःख रूप, अनात्मस्वरूप और अशुभ है
मोक्ष इससे विपरीत - नित्य, शरण, सुखरूप और शुभ है
मिथ्यादृष्टि का प्रयोजन अशुभ होता है
और सम्यग्दृष्टि का शुभ, मोक्ष प्रयोजन होता है
अशुभ मिथ्यात्व के साथ तक रहता है
और शुभ सम्यक्त्व से शुरू होकर मोक्ष तक रहता है
इससे आत्मा पवित्र होना शुरू होती है
और शुभ होते-होते मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी कषाय,, अविरति, प्रमाद और योगों से दूर होकर पूर्णतया शुभ हो जाती है
इसी का नाम मोक्ष है
आज भी सिद्ध आत्माओं का स्मरण हमारे लिए शुभ आस्रव का कारण है
इसलिए सिद्धांततः दो ही चीजें हैं, तीन नहीं
संसार अशुभ है और मोक्ष शुभ है
हमने जाना कि शुभ भी सभी का एक तरीके का नहीं होता
धर्म-ध्यानी, सयोग केवली, शुक्ल-ध्यानी, सबके आस्रव का विभाजन शुभ में ही होता है
हमारे लिए प्रयोजन मोक्ष से होना चाहिए, संसार की भोगाकांक्षाओं से नहीं
इसलिए अशुभ को छोड़कर शुभ में लगना चाहिए
पूर्वाचार्यों की भी यही अवधारणा है
वर्तमान में, एकांत दृष्टिकोण से हो रही, शुद्ध की चर्चाओं का खंडन करते हुए, मुनिश्री ने समझाया कि
वे सिद्धांत के परे हैं
कहीं भी तत्त्वार्थ सूत्र में शुद्ध की चर्चा नहीं है
लोग शुभ तो करते नहीं, सीधा शुद्ध-शुद्ध की बातें करने लग जाते हैं
हमें शुद्धोपयोग का चिंतन नहीं करना
शुभ भाव लाने हैं
और संसार अनित्य है, मोक्ष नित्य है - यही चिंतन करना है
हमने जाना कि अध्यात्म ख्याली चीज है
सिद्धांत वास्तविकता बताता है
गुणस्थान सिद्धांत के अनुसार बदलते हैं
अध्यात्म से नहीं
सूत्र चार सकषायाकषाययो: साम्परायिकेर्यापथयो: में हमने कषाय की अपेक्षा आस्रव के दो भेद जानें
कषाय से सहित सकषाय अवस्था में साम्परायिक आस्रव
और कषाय से रहित अकषाय अवस्था में ईर्यापथ आस्रव
जीव पहले से दसवें गुणस्थान तक सकषाय होते हैं
और ग्यारहवें से लेकर सिद्ध अवस्था तक अकषाय होते हैं
आस्रव की विवक्षा से ग्यारहवें उपशांत-मोह, बारहवें क्षीण-मोह और तेरहवें संयोगी-केवली गुणस्थानों में ईर्यापथ आस्रव होता है
अयोग-केवली और सिद्ध आस्रव रहित होते हैं
हमने जाना कि कषाय का उदय परतंत्रता का कारण है
क्योंकि कषाय बांधती है
जैसे गोंद जिससे चिपक जाता है उसको बांध देता है
उसी प्रकार कषाय आत्मा के अंदर कर्मों को
कर्मों के कारण नो कर्मों को
और नो कर्मों के कारण संसार को बांधती है
कषाय की कमी होने से जीव संसार से निर्लिप्त रहेगा
साम्परायिक का अर्थ है पराभव या पराधीन करने वाला
अपने को जीतने नहीं देने वाला
कषाय आत्मा को पराभव कर
संसार में ही रोके रखती है
मुक्त नहीं होने देती
जिस तरह सभी का पुण्य और पाप एक नहीं होता
उसी प्रकार सकषाय अवस्था में सबका साम्परायिक आस्रव एक जैसा नहीं होता
जैसे मिथ्यादृष्टि का, अविरत सम्यग्दृष्टि का, व्रती सम्यग्दृष्टि का, ध्यानी आदि का आस्रव अलग-अलग होगा
कषाय कम होने से आत्मा पवित्र होती है
लेकिन पूर्णतया कषाय रहित होने तक जीव के साम्परायिक् रायिक आस्रव ही होता है
दसवें सूक्ष्म साम्परायिक् रायिक गुणस्थान में सूक्ष्म कषाय का उदय रहता है
जिससे यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति नहीं होती
ग्यारहवें गुणस्थान से यथाख्यात चारित्र और ईर्यापथ आस्रव प्रारंभ होता है
‘इरियाणं ईर्या’ यानि बस गमन होना
पथ यानि रास्ता
अर्थात् ईर्यापथ का अर्थ है कर्म का आत्मा के प्रदेशों मेंसे आना और जाना
रुकना नहीं
रोकने का काम तो कषाय रूपी चिपकन करती है
जैसे paint से गीली दीवार पर धूल-मिट्टी चिपकती है
परन्तु उसके सूखने पर मिट्टी उसके ऊपर लगती है और गिर पड़ती है