श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 54

सूत्र -49

Description

आहारक शरीर शुभ योग वाला व शुभ कार्य करने वाला है l आहारक शरीर के बारे में विशेष जानकारी l आहारक शरीर अन्य चार शरीरों की अपेक्षा एकान्त रुप से शुभ ही है l आहारक शरीर कहाँ तक जा सकता है? आहारक शरीर की उत्पत्ति के हेतु l आहारक शरीर के लिए गुणस्थान की व्यवस्था l आहारक शरीर के बन्ध व उत्पत्ति की कर्मजन्य व्यवस्था l आहारक शरीर में सहंनन नहीं होता समचतुरस्र संस्थान होता है l आहारक ऋद्धि से ही आहारक शरीर की उत्पत्ति होती है l शरीर बनने से पहले एक अन्तर्मुहूर्त तक मिश्रकाय योग होता है l एक समय पर एक ही योग होता है l शुभ और विशुद्ध केवल आहारक शरीर होते हैं अन्य नहीं l

Sutra

शुभं विशुद्ध-मव्याघाति चाहारकं प्रमत्त-संयतस्यैव।l४९।l

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WINNERS

Day 54

13th July, 2022

Manoj Kumar Nahata

Jaipur

WIINNER- 1

Vimlesh Jain

Mandsaur

WINNER-2

Sampat Jain

Hazaribagh

WINNER-3

Sawal (Quiz Question)

कौनसा शरीर शुभ और विशुद्ध ही होता है?

  1. औदारिक शरीर

  2. वैक्रियिक शरीर

  3. आहारक शरीर *

  4. तैजस शरीर

Abhyas (Practice Paper):

Summary


  1. हम द्वितीय अध्याय में जैन जीव विज्ञान को समझ रहे हैं

  2. सूत्र उननचास शुभं विशुद्ध-मव्याघाति चाहारकं प्रमत्त-संयतस्यैव में हमने आहारक शरीर की विशेषताओं को जाना

    • यह शुभ योग वाला व शुभ कार्य करने वाला है

      1. इससे जो शुभ योग होगा और पुण्य आस्रव, पुण्य बन्ध होगा

    • यह मुनि महाराज के मस्तिष्क से निकलने वाला एक विशेष पुतला होता है

      1. जो ऋद्धि के माध्यम से प्राप्त होता है

      2. जो उनके अन्दर उत्पन्न तत्त्व में संदेह के निवारण हेतु निकलता है

      3. और जहाँ भी केवली भगवन्त विद्यमान रहते हैं वहाँ बिना रुकावट जाता है

    • यह विशुद्ध है अर्थात यह विशुद्ध कारणों से उत्पन्न होता है

    • यह अन्य चार शरीरों की अपेक्षा एकान्त रुप से शुभ ही है

      1. औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मण शरीरों के कार्य अशुभ रूप में भी देखें जाते हैं

    • और यह जहाँ भी जाएगा इसका प्रयोजन शुभ ही होगा


  1. यदि मुनि महाराज औदारिक शरीर से केवली भगवान् के पास जाने की कोशिश करेंगे,

    • चाहे ऋद्धियाँ से भी हो

    • तो भी जाने में असंयम होगा

    • आहारक पुतले से उस असंयम को दूर होता है


  1. यह देव वन्दना के निमित्त से भी जा सकता है

    • उदाहरण के लिए ऐसे तीर्थ जहाँ पहुँचने में रास्ता प्रासुक, साफ-सुथरा न हो


  1. हमने जाना कि आहारक शरीर का बंध सातवें गुणस्थान में अप्रमत्त दशा में ही होता है

    • और इसका उदय छटवें गुणस्थान में प्रमत्त दशा में होता है

    • यह अप्रमत्त संयत के नहीं निकलेगा


  1. हमने आहारक शरीर के बन्ध व उत्पत्ति के नियम को जाना

    • इसका उदय प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन के साथ में नहीं होता

    • मनःपर्यय ज्ञान के साथ में आहारक ऋद्धि नहीं होती

    • नपुंसक वाले जीव के लिए इसका बन्ध और उदय नहीं होगा

      1. क्योंकि वेद भीतर से भावों की अपेक्षा होता है तो मुनि महाराज के तीनों वेद रह सकते हैं


  1. आहारक शरीर की विशेषताएं जो अन्य शरीर में नहीं होती

    • बहुत सुन्दर देवों की तरह समचतुरस्र संस्थान का होता है

    • इसकी शुभ आकृति होती है, शुभ धवल वर्ण होता है

    • इसमें धातुएँ, उप धातुओं नहीं होती

    • देवों के शरीर के सामान

      1. इसमें संहनन नहीं होता

      2. इसमें रोग आदि नहीं होते हैं क्योंकि इसमें धातु उपधातुओं का परिवर्तन नहीं होता


  1. रस, माँस, रक्त, मज्जा आदि के आभाव में यह शुद्ध शरीर कहलाता है

  2. मुनि महाराज आहारक ऋद्धि से ही आहारक शरीर की उत्पत्ति कर सकते हैं

    • शरीर निष्पत्ति के अन्तर्मुहूर्त तक यह अपर्याप्त अवस्था में होता हैं

    • और इसमें आहारक मिश्रकाय योग होता है

    • इसके पश्चात पर्याप्त दशा में आहारक काय योग होता है

    • यह अन्तर्मुहूर्त में केवली भगवान् के पास चला जाएगा

    • और अन्तर्मुहूर्त में ही वह लौट के आ जाएगा


  1. हमने जाना कि एक समय में एक ही योग होता है