श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 46
सूत्र - 34
सूत्र - 34
आर्त ध्यान की समयावधि। निचले गुणस्थानों में आर्त ध्यान निरन्तर बना रहता है । परिग्रह के संयोग से आर्त ध्यान बढ़ता है। पाण्डवों का आर्त ध्यान। आत्म चिन्ता करना उत्तम है। आत्म स्वभाव में स्थित होने से धर्म ध्यान होता है। पंचम काल से धर्म ध्यान में कोई बाधा नहीं। वर्तमान में जीना सीखे। Meditation हमें present पर focus करना सिखाता है। Meditation से धर्म ध्यान नहीं होता। अर्हं ध्यान योग में आर्त ध्यान में कमी के साथ-साथ धर्म ध्यान भी होता है। अर्हं ध्यान योग: एक vaccine।
तदविरत -देशविरत-प्रमत्त-संयतानाम्॥9.34॥
02, Jan 2025
WINNER-1
WINNER-2
WINNER-3
कौनसी चिंता उत्तम कही गई है?
माता-पिता की चिंता
बंधु चिंता
आत्म चिंता*
संपदा चिंता
आर्तध्यान के प्रकरण में हमने जाना-
जिसके पास जितने संयोग होते हैं,
उसे उतना ही आर्तध्यान होता है।
पहले से चौथे गुणस्थान तक अविरत होते हैं।
उनके पास बहुत परिग्रह रहने से
आर्तध्यान लम्बे समय तक चलता है।
“हमें अच्छा संयोग मिल जाए,
जो मिला है, वह छूट न जाए”,
यह चिन्ता निरन्तर रहती है।
किसी की मृत्यु होने पर तेरहवीं तक पातक चलता है,
तब तक उसी भाव में रहते हैं
उसी की स्मृति से जुड़कर आर्तध्यान करते हैं।
पाँचवें गुणस्थान में थोड़ा त्याग हो जाता है।
इसलिए परिग्रह कम होने से
आर्तध्यान भी कम होता है।
जो है उसी में कुछ अनिष्ट होना
उनके आर्तध्यान का कारण बनता है।
और छठवें गुणस्थान में कुछ तात्कालिक दुःख में
मन लगने से मुनि महाराज के आर्तध्यान हो सकता है।
पर उनके छठवें-सातवें गुणस्थान सेकंडों में बदलते रहते हैं।
अप्रमत्त होते ही उनका सारा आर्तध्यान छूट जाता है।
छठवें गुणस्थान से आगे आर्तध्यान नहीं होता।
आर्तध्यान से ही संसार के दुःख होते हैं।
पाण्डवों के उत्कृष्ट उदाहरण से हम अपनी वृत्तियाँ समझ सकते हैं।
जब क्षणभर के लिए अपने भाइयों के दुःख की चिन्ता होने से
उनका मोक्ष रुक गया
तो हम तो हर समय दूसरों की चिन्ताओं में रहते हैं।
तो हमारे अन्दर क्या-क्या हो रहा होगा?
पर से attach होने से आर्तध्यान होता है।
दूसरा हमारे अनुरूप नहीं हो तो दुःख!
और यदि अनुकूल हो तो कब तक अनुकूल रहेगा
यह चिन्ता पड़ी रहती है।
जितना हम स्व-आश्रित होंगे, अपनी आत्म साधना में लगेंगे
उतना ही धर्म ध्यान में होंगे।
इसलिए आत्म चिन्ता करना उत्तम माना गया है।
आचार्य कुन्द-कुन्द देव ने कहा है कि
जो आत्मस्वभाव में रत है, उनके लिए आज भी धर्म ध्यान होता है।
आज पंचम काल में भी धर्म ध्यान करने के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं
अनुकूल वातावरण है,
सब सहयोग भी करते हैं,
कोई आपत्तियाँ नहीं हैं जिनसे बाधा हो।
चतुर्थ काल में भी सर्दी, गर्मी, बरसात ऐसे ही होते हैं।
कोई भी मौसम धर्म ध्यान के लिए बाधा नहीं होता।
बस हमें करने का मन होना चाहिए।
इन्हीं में धर्म ध्यान होता है,
और इन्हीं से पीड़ित होने पर आर्तध्यान हो जाता है।
जब तक हम किसी चीज़ से आहत होते हैं
तब तक आर्तध्यान में होते हैं।
इसलिए हमें किसी भी चीज से दुःखी नहीं होना चाहिए।
“भविष्य में कहीं ऐसा न हो जाए”
ऐसी आशंकाएँ हमारा आर्तध्यान होती हैं।
जो present में जीता है,
कोई आशंकाएँ नहीं रखता,
वह आर्तध्यान से दूर रहता है।
इसलिए अलग-अलग meditations, present moment पर ही focus कराती हैं।
क्योंकि चिन्ता past या future की ही होती है
और चिन्ता का नाम ही दुःख है।
present moment में आने पर हम इन भविष्य और भूत की चिन्ताओं से खुद को बचा पाते हैं।
अन्य meditations बस इस आर्तध्यान को ही reduce करवाते हैं
उसी से हमें relaxed लगने लगता है
पर उससे धर्मध्यान नहीं होता।
आर्तध्यान की कमी होना और धर्मध्यान होना - दोनों अलग-अलग होते हैं।
अर्हं ध्यान योग में
आर्तध्यान की कमी होने से
tension भी release होता है
और धर्म ध्यान भी होता है।
हमें पता ही नहीं पड़ता कब आर्तध्यान छूट जाता है
और हम धर्मध्यान में आ जाते हैं।
इससे हम धर्म ध्यान करने की technique सीखते हैं।
ध्यान से ही
mental health, भीतरी स्वास्थ्य, बनता है।
meditation, medicine का काम करती है।
जो corona आदि बाहर की vaccine से भी बहुत बड़ी होती है।
इसलिए हमें धर्म ध्यान करने के लिए अपना मन बना कर रखना चाहिए।