श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 17
सूत्र - 10
सूत्र - 10
गुणस्थान और कषाय का वर्णन। सूक्ष्म साम्पराय चारित्र। छद्मस्थ वीतराग शब्द का अर्थ। जीव छद्मस्थ कब तक। केवली, सर्वज्ञ और असहाय।
सूक्ष्म-साम्पराय-छद्मस्थ-वीत-रागयोश्चतुर्दश॥9.10॥
24, oct 2024
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साम्पराय का अर्थ क्या बताया गया है?
सम्प्रदाय
संपदा
निमित्त
कषाय*
परिषहों के प्रकरण में आज हमने सूत्र दस सूक्ष्म-साम्पराय-छद्मस्थ-वीत-रागयोश्चतुर्दश में जाना-
सूक्ष्मसाम्पराय और छद्मस्थ वीतराग गुणस्थानों में
चौदह परीषह होते हैं।
सूक्ष्मसाम्पराय में दो शब्द हैं
सूक्ष्म
और साम्पराय।
सूक्ष्म अर्थात् उदयगत कषाय की मंदता होना
सत्व और बंध में सूक्ष्मपना नहीं होता
क्योंकि वेदन उदयगत कषाय का ही होता है।
और साम्पराय का अर्थ है ‘कषाय’
यह हमने अध्याय छह के सूत्र चार सकषाया-कषाययो: साम्परायि-केर्या-पथयोः सूत्र में जाना था
अतः, सूक्ष्मसाम्पराय यानि कषाय का उदय
“अत्यन्त” मन्द होना
यह दसवें- सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में होता है।
जिसमें सूक्ष्मसाम्पराय नामक चारित्र होता है।
अगले गुणस्थान में इस सूक्ष्म कषाय का भी अभाव हो जाता है।
कषाय की मंदता की तुलना आचार्य लाल रेशमी वस्त्र से करते हैं
जिसका रंग बिल्कुल हल्का रह गया है
बस अगले ही क्षण हट जाएगा।
इससे पहले कषाय
बादर कहलाती है।
यह सूक्ष्म कषाय मात्र संज्वलन लोभ होती है
अन्य पन्द्रह कषायों का अभाव तो
निचले गुणस्थानों में हो चुका होता है
और यह सूक्ष्म लोभ अंतर्मुहूर्त में
नियम से नष्ट होता है।
तब जीव क्षपक श्रेणी की अपेक्षा
बारहवाँ
और उपशम श्रेणी की अपेक्षा
ग्यारहवाँ गुणस्थान पा जाता है।
हमने जाना - सिद्धांततया वीतराग शब्द
दसवें गुणस्थान के बाद प्रयुक्त होता है
क्योंकि वहीं राग का- सूक्ष्म और बादर,
पूर्ण रूप से अभाव होता है
यानि उसका उदय अनुभव में नहीं आता
पहले से दसवें गुणस्थान तक सराग अवस्था
और उसके आगे वीतराग अवस्था होती है।
छद्मस्थ वीतराग में
छद्मस्थ मतलब छद्म प्लस(+) स्थ
यानि जिनकी आत्मा छद्म में स्थित है।
छद्म अर्थात् आवरण
जो हमारे गुणों को ढ़कता है
जैसे- मुख्य रूप से ज्ञानावरण, दर्शनावरण
अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण में भी आवरण शब्द आता है
देश और सकल चारित्र का घात करने वाले ये आवरण
वीतराग दशा में पहले ही छूट जाते हैं
ज्ञानावरण-दर्शनावरण में भी
मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण आदि का भी
आवरण क्षयोपशम के कारण कुछ हट चुका होता है
लेकिन मुख्यतः केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण का आवरण रहता है।
इनका उदय बारहवें गुणस्थान तक रहता है,
तेरहवें गुणस्थान में इनके क्षय होने से अरिहन्त
अर्थात् केवली बन जाते हैं।
अतः हमने समझा कि सिद्धांततया
पहले से बारहवें गुणस्थान तक सभी छद्मस्थ होते हैं।
हम मुनि-महाराज को ज्ञानी और खुद को छद्मस्थ कहते तो हैं
पर वह इस अपेक्षा से है कि हमारे ऊपर ज्ञान के आवरण अधिक हैं
वस्तुतः दोनों छद्मस्थ होते हैं
पहले से दसवें गुणस्थान तक सराग छद्मस्थ होते हैं
ग्यारहवें उपशान्त मोह और बारहवें क्षीण मोह में वीतराग छद्मस्थ होते हैं।
उसके बाद छद्मस्थ का विरोधी केवलीपना होता है
यानि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में
वीतरागता के साथ
सर्वज्ञ और केवली अवस्था होती है।
सर्वज्ञ मतलब केवलज्ञान से सब कुछ जानने वाले।
केवली मतलब ‘केवल’ ज्ञान
only knowledge.
अर्थात् उनके पास अब और कुछ नहीं रहा,
कोई आवरण नहीं,
बस ज्ञान है।
केवली असहाय होते हैं।
यह असहाय हमारे sense में दीनता वाला नहीं है
जिसकी कोई सहायता करने वाला न हो।
बल्कि गौरव वाला है
जिन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है
हमने जाना कि
श्रुतकेवली के साथ भगवान् शब्द जोड़ने से
वह अरिहन्त भगवान की कोई विशिष्ट दशा नहीं बताता।
ये अलग होते हैं।