श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 26
सूत्र - 29,30
सूत्र - 29,30
दास और दासी।
क्षेत्र-वास्तु-हिरण्य-सुवर्ण-धन-धान्य-दासी-दास-कुप्य-भाण्ड-प्रमाणातिक्रमाः ॥7.29॥
ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ॥7.30॥
17th, Jan 2024
अचला जैन
गाजियाबाद
WINNER-1
सुभाष जैन
नरडाना
WINNER-2
Anita Jain
Ajmer
WINNER-3
दुकान, मकान किसमें आएंगे?
क्षेत्र
वास्तु*
हिरण्य
कुप्य
ब्रह्मचर्य अणुव्रत का पाँचवा दोष है - कामतीव्राभिनिवेश
अर्थात् काम की तीव्रता के साथ में अभिनिवेश
यानि काम की बहुत तीव्रता का भाव
जिसके अभिनिवेश में व्यक्ति सब चीजें भूल कर भावों में बह जाता है
छोटी बच्ची, बूढ़ी स्त्री आदि भी नहीं देखता
कभी ऐसी भावना उत्पन्न हो, तो दोष है
मगर नियमित ऐसी प्रवृत्ति होना अनाचार है
सूत्र उनतीस क्षेत्र-वास्तु-हिरण्य-सुवर्ण-धन-धान्य-दासी-दास-कुप्य-भाण्ड-प्रमाणातिक्रमाः में हमने जाना कि
प्रमाण का, बनाई हुई limit का अतिक्रम या उल्लंघन करना
अपरिग्रह अणुव्रत के अतिचार हैं
संस्कृत के शब्द क्षेत्र का अर्थ प्राकृत में खेत होता है
खेती के लिए उपजाऊ भूमि
जिसमें शस्य मतलब फसल आदि उत्पन्न होती है।
व्यापार या फसल बढ़ाने के लोभ के कारण
अणुव्रत के समय बनाई गयी मर्यादा का उल्लंघन करना क्षेत्र दोष में आता है
इसी प्रकार दुकान, मकान, plots आदि के परिमाण
का लोभ के वशीभूत उल्लंघन करना
वास्तु दोष में आता है
लेन-देन में व्यवहार में काम आने वाली चीजें
जैसे चांदी के सिक्के, मुद्रा, किसी देश की currency आदि को हिरण्य कहते हैं
इनके परिमाण का अतिक्रम हिरण्य दोष है
सुवर्ण में gold, platinum आदि costly metal आ जाते हैं
और इनके परिमाण का अतिक्रम करने से सुवर्ण दोष लगता है
पहले धन का अर्थ होता था गोधन, गजधन
गाय-बैल-घोड़े आदि को पशुधन
और ज्यादा पशुधन वाले को धनवान मानते थे
क्योंकि इन्हें पालना ही बड़ा काम होता था
इस परिग्रह का भी परिमाण करने के बाद, उल्लंघन करने से धन दोष लगता है
इसी प्रकार धान्य में सब तरीके के धान्य आ जाते हैं
चावल, ज्वार, बाजरा, मटर, गेहूँ आदि
इन खाने-पीने की सम्पदाओं के प्रमाण का अतिक्रम करने से धान्य दोष लगता है
दासी-दास का मतलब घर में नौकर-चाकर से, business में employee से होता है
परिग्रह परिमाण में इनकी भी limit रखी जाती है
दासी-दास भी एक परिग्रह होते हैं
और इनकी अधिक संख्या रखना भी अपरिग्रह के दोष में आता है
कुप्य मतलब कपास आदि के वस्त्र
भाण्ड मतलब सोने-चांदी आदि के बर्तन
इन दोनों के प्रमाण का अतिक्रमण करने पर भी अपरिग्रह व्रत में दोष लगता है
कहीं-कहीं सूत्रों में भाण्ड शब्द नहीं लिखा रहता
मूल टीकाओं में आचार्यों ने केवल कुप्य शब्द की द्विवचन व्याख्या कर
वहाँ कुप्य में ही दोनों को ग्रहण किया है
आचार्य महाराज के अनुसार चूँकि यहाँ हर चीज के दो-दो के जोड़े बनाए हैं
क्षेत्र-वास्तु,
हिरण्य-स्वर्ण,
धन-धान्य,
दासी-दास
तो कुप्य के साथ भाण्ड भी होना चाहिए
यदि हम इनकी संख्या का उल्लंघन करते हैं तो वह भी अतिचार में आता है
सूत्र चौबीस में हमने जाना था कि
दिग्व्रत आदि तीन गुणव्रत और सामायिक आदि चार शिक्षाव्रत को शीलव्रत कहते हैं
ये अणुव्रतों की रक्षा करने के लिए एक fence की तरह होते हैं
सूत्र तीस ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि में हमने दिग्व्रत के पाँच अतिचारों को जाना
दिग्व्रती दसों दिशाओं
east, west, north, south
इनके बीच में आग्नेय(south-east), ईशान(north-east), नैऋत्य(south-west) और वायव्य(north-west) विदिशायें
ऊर्ध्व दिशा और अधो दिशा
में गमन, व्यापार आदि की limit रखता है
पहले तीन अतिचार हैं - ऊर्ध्व, अधो और तिर्यग् दिशाओं का व्यतिक्रम व उल्लंघन करना
ऊर्ध्व दिशा में किसी पर्वत का या जितने किलोमीटरों का
अधो दिशा में खाईयाँ, बिल, सुरंग आदि का जो प्रमाण बनाया था
उसको घूमने, व्यापार आदि के लोभ में उल्लंघन करना
तिर्यग् गमन में तिरछे रूप में चारों दिशाएँ और चारों विदिशाएँ आ जाती हैं
दिग्व्रती सिर्फ मर्यादा में ही गमन करता है
चौथे दोष क्षेत्रवृद्धि में हम सीधे ऊर्ध्व, अधो, तिर्यग् दिशा में उल्लंघन तो नहीं करते
मगर थोड़ी चतुराई से मर्यादा का उल्लंघन करते हैं
इसे हम कल समझेंगे