श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 50
सूत्र -36
सूत्र -36
स्मृति समन्वाहार, धर्मध्यान की परिपेक्ष में। विचय, धर्म ध्यान के अंग। धर्म ध्यान के प्रकार - धर्म ध्यान के विचार के विषय। धर्मध्यान के परिपेक्ष में आज्ञा का अर्थ- भगवान का उपदेश। सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान की विशेषता। वीतरागता ही ज्ञान की प्रामाणिकता। आज्ञा विचय’ कहीं भी, कभी भी। श्रद्धा, धर्म ध्यान का आधार। जैन दर्शन में ही है, आत्मा की उन्नति ज्ञान। भगवान की आज्ञा में आस्था व उसका चिन्तन- ‘आज्ञा विचय’। जैन दर्शन के सिद्धान्तों की तार्किकता तथा वैज्ञानिकता। अहिंसा, जैन दर्शन का मौलिक सिद्धान्त।
आज्ञापाय-विपाक-संस्थान-विचयाय धर्म्यम्॥9.36॥
13, Jan 2025
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जिनेन्द्र भगवान के वचन कैसे नहीं हो सकते?
स्पष्ट
अन्यथा*
सत्य
सर्वसाधारण के लिए
ध्यान के प्रकरण में आज हमने सूत्र छत्तीस में धर्म ध्यान जाना।
कषायों और विभाव-भावों के कारण
हमने हमेशा आर्त और रौद्रध्यान ही किया है,
कभी धर्म ध्यान नहीं किया।
धर्म से सहित ध्यान को धर्म्य ध्यान कहा जाता है।
जिसमें आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान
इन चारों पर विचय यानी विचार, चिन्तन
स्मृति का समन्वाहार,
thought का repetition किया जाता है।
जब स्मृति समन्वाहार का object बदल जाता है,
तो हम आर्त, रौद्र ध्यान से धर्म ध्यान में पहुँच जाते हैं।
धर्म ध्यान विचार सहित ही होता है।
क्योंकि ध्यान एकदम कहीं पर केन्द्रित नहीं होता,
विचार कहीं न कहीं टिकते ही हैं,
उन्हें बार-बार अच्छे ध्येय पर लगाने से ही धर्म ध्यान होता है।
निर्विचार दशा आगे के ध्यानों में होती है।
जिनेन्द्र भगवान के उपदेशों को आज्ञा स्वरूप मानकर
उन्ही का चिन्तन करना
आज्ञा विचय धर्म ध्यान होता है।
आज्ञा मतलब - उपदेश, शासन।
जैन दर्शन स्थूल जगत के बारे में कम बताता है,
उसमें सूक्ष्मताएँ ज्यादा हैं।
जैसे-
आत्मा,
जीवादि सात तत्त्व,
बन्ध व्यवस्था,
मोक्ष व्यवस्था,
जीव के दर्शन-ज्ञान आदि गुण,
पुद्गल के गुण,
पाँचों द्रव्य,
यह कुछ भी हम मन और इन्द्रियों से नहीं देख पाते,
लेकिन जैन दर्शन में नियमबद्ध तरीके से
इनकी विस्तृत व्याख्याएँ मिलती हैं।
हमें दिखाई देने वाले स्थूल पदार्थ तो बहुत छोटे होते हैं।
तीन लोक का detailed ज्ञान, उसके एक-एक inch तक की mathematics,
जीव यहाँ से कहाँ जाता है?,
किस गति से निकल कर कौन सा जीव क्या बन सकता है?,
कौन सा जीव कितना ऊंचा या कितना नीचे जा सकता है?,
स्वर्ग और नरक कितने-कितने हैं?,
उनकी कैसी व्यवस्थाएँ हैं?,
जीव कैसे परिणाम करता है? ,
कैसी लेश्याओं से स्वर्गों में जाता है? ,
वहाँ कितना धर्म ध्यान कर सकता है?,
सुमेरु पर्वत से लेकर ढाई द्वीप का ज्ञान,
स्वयंभूरमण समुद्र तक व्याप्त मध्य लोक का ज्ञान,
जैन ग्रन्थों में सब एकरूपता से मिलता है।
यह सब कोई भी सिर्फ कल्पना से नहीं खड़ा कर सकता।
अन्य किसी सम्प्रदाय में इतना विस्तृत ज्ञान नहीं मिलता।
इन तत्त्वों का ज्ञान सिर्फ सर्वज्ञ ही दे सकते हैं।
वीतरागी भगवान ही सर्वज्ञ होते हैं,
वे अन्यथा नहीं बोलते,
क्योंकि किसी को फ़साने के लिए मिथ्या बोला जाता है,
पर जिनेन्द्र देव के अन्दर राग, द्वेष, कषाय सब खत्म होने के कारण
मिथ्या बोलने का कोई कारण नहीं बचा।
इसलिए उनके ही वचन प्रामाणिक होते हैं,
जो सूक्ष्म चीज़ें हमें दिखाई नहीं देतीं
भगवान की आज्ञा शिरोधार्य करके,
उन चीज़ों पर विश्वास करके,
उनके दिए हुए ज्ञान को हम
घर में,
रजाई में बैठे-बैठे ही स्मृति में लाकर
धर्म ध्यान कर सकते हैं।
उसके लिए और कोई मेहनत नहीं करनी होती।
सर्वज्ञ की वाणी को श्रद्धा से स्वीकारने पर ही धर्म ध्यान होता है।
जिज्ञासा शान्त करने के लिए हम प्रश्न कर सकते हैं।
लेकिन उसमें अनास्था का भाव नहीं होना चाहिए।
बड़े-बड़े ग्रन्थों में तर्कों के साथ
जीव सिद्धि, सर्वज्ञ सिद्धि करी गई है,
कुछ भी यद्वा-तद्वा नहीं बोला गया है,
अहिंसा, स्याद्वाद, कर्म-विज्ञान, आत्म-विज्ञान
आदि सारे सिद्धांत आज भी उतने ही सत्य हैं जितने पहले थे,
सब अकाट्य हैं।
जैन दर्शन में अहिंसा की logical विवेचना है
जो कहीं और नहीं मिलती।
लोग हिंसा या अहिंसा की अतिवादिता में जीते हैं।
“अहिंसा का पालन हो ही नहीं सकता,
क्योंकि जीव तो हर जगह हैं,
चाहे वनस्पति हों या बड़े-जीव।”
ऐसा सोचकर कुछ लोग अपने हिंसक कृत्य को भी हिंसा नहीं मानते।
जब तक हम जीवों को इन्द्रियों के माध्यम से जानकर,
‘शक्य अनुष्ठान’ और ‘अशक्य अनुष्ठान’ में भेद नहीं जानेंगे
तब तक हमें हिंसा-अहिंसा की सूक्ष्म जानकारियाँ नहीं हो सकतीं।