श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 12
सूत्र -11
सूत्र -11
आक्रंदन। रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय, सुन इठले लोग सब बांट न ले है कोय।
16th Aug, 2023
Poonam Jain
Shikohabad
WINNER-1
रंजना जैन
बड़वाह
WINNER-2
Poonam Jain
Firozabad
WINNER-3
मन में दुःख का भाव कौनसे कर्म के बंध का कारण है?
दर्शनावरण
ज्ञानावरण
असाता वेदनीय*
अंतराय
हमने जाना कि उपघात भाव में हम दूसरे के ज्ञान का घात करने का भाव करते हैं
मन में सोचते हैं या बोल देते हैं कि
इसका ज्ञान कब मिटेगा
और हमारे सामने इसका ज्ञान देना रुकेगा
2. यह वचन और काय से की गयी आसादना से आगे है
3. ज्ञानियों के ज्ञान से भी लोगों को पीड़ा होती है
वे उसका भी घात करने का भाव कर
कर्मों का आस्रव और बंध करते हैं
सूत्र ग्यारह दु:ख-शोक तापा-क्रन्दन-वध-परिदेव-नान्यात्म-परोभय-स्थानान्य सद्वेद्यस्य में हमने असाता वेदनीय कर्म के आस्रव के कारणों को जाना
पहला कारण है दुःख अर्थात मन में दुःख का भाव होना
यह कभी सकारण होता है
और कभी-कभी केवल चीजें अनुकूल न होने पर होता है
हमने जाना कि परिणाम अपने विचारों से चलते हैं
हम अपने विचारों को थोड़ा सा change करेंगे
और दुनिया में रहकर भी इसकी बातों से ज्यादा मतलब नहीं रखेंगे
तो हम अपने भीतर के दुःख को थोड़ा सा रोक पाएँगे
हमें महसूस करना चाहिए कि
अभी आसाता वेदनीय कर्म का आस्रव करके हम आगे के लिए दुःख बो रहे हैं
जिस कर्म के उदय से दुःख है, पुनः उसी को बाँध रहे हैं
हमें ये mental therapy खुद ही करनी होगी
हमें सोचना चाहिए कि उसके comparison में मेरा दुःख कितना कम है
इससे हमारा दुःख कम हो जाएगा
हम जिस चीज के दुखी हो रहे हैं, वे सब अनित्य हैं
जो कर्म के उदय में होना है, हो जाएगा
हम क्यों कर्म का आस्रव करें
हम खुश हैं
दूसरा कारण शोक है
यह किसी इष्ट, close relative या fast friend के वियोग से उत्पन्न होता है
यह सामान्य दुःख से थोडा बढ़कर है
बहू-बेटी आदि के आने के बाद, जाने से
हम थोड़े समय के लिए शोक में रहते हैं
और यदि accident आदि से कहीं वो हमेशा के लिए चले जाएँ
तो लम्बे समय के लिए शोक और असाता वेदनीय कर्म का आस्राव होता है
हम ज्यादा दुखी होकर ज्यादा रोगी हो जाते हैं
हमें इससे बचना पड़ता है
तीसरा कारण ताप भाव है
इसमें मन का ताप यानि temperature भीतर से बढ़ जाता है
किसी के गलत बात कहने से, insult करने से
भीतर आग सी लग जाती है
नींद उड़ जाती है
सिद्धांतः असाता वेदनीय कर्म ज्यादा होने से नींद नहीं आती
ताप जब भीतर न रह पाय तो आक्रंदन का रूप ले लेता है
आक्रंदन में हम रोना-चिल्लाना भी शुरू कर देते हैं
रो रो कर दूसरों को पूरी कहानी सुना डालते हैं
मगर कोई किसी के दुःख को रोक नहीं सकता
अपना दुःख खुद ही रोकना होता है
रहीम ने सही ही कहा है
रहिमन निज मन की व्यथा,
मन ही राखो गोय,
सुन इठले लोग सब
बांट न ले है कोय
मगर अपनी व्यथा मन में रखने वाले का मन भी बड़ा strong होना चाहिए
नहीं तो पहले बता देने से वो थोड़ा हल्का हो जाएगा
वध में हम किसी के प्राणों का घात कर देते हैं
हाथ-पैर काट कर देते हैं
दांत आदि निकाल देते हैं
असाता वेदनीय कर्म के आस्राव का छटवाँ कारण है परिदेवन
इसमें हम रोते भी हैं और चिल्लाते भी
जैसे विदाई के समय बेटी के आक्रंदन से पूरा मोहल्ला रोने लग जाता है
आक्रंदन का भाव तीन तरह से असाता वेदनीय के आस्रव और बंध का कारण बन जाता है
स्वात्म में सिर्फ करने वाला दुखी होता है
परात्म में केवल दूसरों को दुखी करने के लिए आक्रंदन करते हैं
उभय में स्व और पर दोनों दुखी होते हैं