श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 49
सूत्र -36,37
सूत्र -36,37
वैक्रियिक शरीर की महत्ता और प्रकार l वैक्रियिक-शरीर की पृथक विक्रिया l सौधर्म-इन्द्र का वैक्रियिक-शरीर कैसे काम करता है l उपयोग के अनुसार ही कर्म बन्ध की प्रक्रिया चलती रहती है l एक घण्टे तक उपयोग एक जगह लग ही नहीं सकता l कर्म-बंध के ‘समय’ का हम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते l आहारक शरीर का अर्थ l तैजस शरीर का मतलब l कर्मों का समूह ही कार्मण शरीर होता है l हमारे ही राग-द्वेष परिणामों से कार्मण शरीर बनता है l पाँचों शरीरों का सूक्ष्मता के आधार पर वर्णन l
औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ।।३६।।
परं परं सूक्ष्मं।l३७।l
Geeta jain
porsa
WIINNER- 1
Padma jain
Shivpuri
WINNER-2
सुनीता माॅडल जैन,
वारासिवनी
WINNER-3
कौनसा शरीर केवल मुनि महाराज के लिए ही प्राप्त होता है?
औदारिक शरीर
वैक्रियिक शरीर
आहारक शरीर *
कार्मण शरीर
औदारिक शरीर के बाद दूसरा शरीर है - वैक्रियिक शरीर
अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राकाम्य, प्राप्ति, इशित्व और वशित्व जैसी आठ ऋद्धियों को प्राप्त करके जीव इस शरीर में विक्रिया कर सकता है
विक्रिया पृथक और अपृथक के भेद से दो प्रकार की होती है
पृथक विक्रिया में जीव अपने शरीर से अलग अलग दूसरे शरीर बना करके उन्हें शेर, गाय आदि बना सकता है
आत्मा के प्रदेश सभी शरीरों में फैल जाते हैं
सभी शरीर अलग-अलग कार्यों में भी लग जाते हैं
हमने जाना कि सौधर्म इन्द्र अपनी विक्रिया से एक साथ 170 तीर्थंकर भगवान के समवशरण में उपस्थित रह सकता है
ऐसा अजितनाथ भगवान के समय में हुआ था
सभी समवशरण में वो भगवान के सामने बैठकर उनकी स्तुति और आराधना करता है
सिद्धांततः main सौधर्म इंद्र तो अपनी शय्या पर ही रहता है, वह कहीं उठता नहीं है
चूँकि विक्रिया से जो अलग-अलग शरीर बने हैं वे अलग अलग क्रियाएं करते हैं तो वह एक शरीर से पूजा भक्ति और दूसरे से भोग भी कर सकता है
इस स्थिति में उसे कर्म का बन्ध होगा या धर्म का?
तो मुनिश्री समझाते हैं कि अन्तरंग में उपयोग और योग की प्रवृत्ति बहुत fast होती है
और उनके अनुसार ही कर्म बन्ध की प्रक्रिया चलती है
यह मतिज्ञान, श्रुतज्ञान या दर्शनोपयोग आदि में बदलता रहता है
हम कब हम बोल रहे हैं?
कब हिल रहे हैं, देख रहे हैं,
यह अपने को ही पकड़ में नहीं आता
यह सब automatically चलता रहता है
कर्म बंध प्रति समय बताया गया है
और एक समय में एक ही उपयोग रहता है
तो कर्म-बंध भी उसी उपयोग के अनुसार होता है
तीसरा शरीर आहारक शरीर है जो केवल मुनि महाराज के होता है
वे इसके माध्यम से तत्त्व के प्रति अपनी जिज्ञासा केवली भगवान के समक्ष समाधान हेतु रखते हैं
इससे वे दूर जाने में होने वाले असंयम को सीमित करते हैं
चौथा शरीर तैजस शरीर है यानि शरीर की कांति
उसका तेज या अंदरूनी glow, illumination या अग्नि
पांचवां शरीर कार्मण-शरीर है यानि कर्मों का समूह
यह सब शरीरों के लिए बीज रूप काम करता है
यह बीज है, तो इतना बड़ा औदारिक शरीर वृक्ष बना हुआ है
और हाथ, पैर सब उस वृक्ष की शाखाएँ हैं
शरीर बनने के पीछे अन्तरंग में अदृश्य-कारण कार्मण शरीर ही होता है
यह आत्मा में ही आत्मा के राग-द्वेष, कषाय परिणामों से बन्ध को प्राप्त होते रहते हैं
अज्ञानवश लोग इस अदृश्य-कारण को न जानकर; तरह-तरह की ईश्वरीय शक्तियाँ से इस प्रक्रिया को व्याख्यायित करते हैं