श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 24
सूत्र - 9,10
Description
सभी भावों की अनुभूति उपयोग ही करता है l चैतन्य लक्षण और उपयोग लक्षण में बड़ा अन्तर है l जीव के मुख्य रूप से दो ही भेद हैं l संसारी जीव में किस-किस प्रकार से परिवर्तन होते हैं ? हमें बार-बार एक जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव,भव मिल चुके हैं l नया संसार मिला, यह सोच तो मिथ्यात्व है l सब कुछ नया लगता है लेकिन ऐसा होता नहीं है l मुक्ति की इच्छा तब होती जब सब बासा है, इसका अनुभव हो l परावर्तन का नाम ही संसार है l
Sutra
स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ।l ९ ll
संसारिणो मुक्ताश्च।l१०ll
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WINNERS
Day 24
18th May, 2022
Meenakshi
Bhopal
WIINNER- 1
मीना
मुंबई
WINNER-2
Sugandha Sahuji
Aurangabad
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
संसारी जीव के अपने बांधे हुए कर्मों का परिवर्तन कौनसा परिवर्तन कहलायेगा?
द्रव्य परिवर्तन *
क्षेत्र परिवर्तन
काल परिवर्तन
भव परिवर्तन
Abhyas (Practice Paper):
Summary
आज हमने जीव के जीवत्व पारिणामिक भाव और उपयोग लक्षण में अंतर को समझा
चैतन्य तो पारिणामिक भाव है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है
चैतन्य का ही परिणाम, उपयोग है
इसी चैतन्य के बहिरंग और अन्तरंग हेतु के अलग-अलग तरह से मिलने पर अलग-अलग रूप से जो परिणमन होता है, वह उपयोग कहलाता है
औदयिक आदि सभी भावों की अनुभूति उपयोग ही करता है
सूत्र १० में हमने जीव के दो भेद - संसारी और मुक्त को जाना
हमने जाना कि संसारी-जीव संसार में परिवर्तन, परिणमन करता है, एक गति से दूसरी गति में ‘संसरण’ करता है
वहीं मुक्त-जीव के इस तरह के कोई ‘संसरण’ नहीं होते , परिवर्तन नहीं होते
ये संसार को अपने पुरुषार्थ से छोड़ चुके हैं
और ये भी अनन्त की संख्या में हैं
परिवर्तन का नाम ही संसार है
हमने जाना कि पाँच प्रकार के परिवर्तन या परावर्तन होेते हैं जिनमें संसारी-जीव का निरन्तर संसरण होता है
पुद्गल रूप शरीर या उससे बनाने वाले आहार आदि को ग्रहण करना, छोड़ना; बंधे हुए कर्मों का परिवर्तन आदि द्रव्य परिवर्तन है
संसारी जीव का जन्म-मरण तीन लोक के अलग-अलग स्थान में होता रहता है इसे क्षेत्र परिवर्तन कहते है
अब कोई-भी ऐसा क्षेत्र नहीं है बचा जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो
जीव का जन्म-मरण अलग-अलग होता है इसे काल परिवर्तन कहते हैं
कोई-भी ऐसा समय नहीं है जिस समय पर इस जीव ला जन्म-मरण न हुआ हो
भव की अपेक्षा से ऐसा कोइ भव, संसार, गति, आयु जघन्य से उत्कृष्ट तकनहीं है जिसे हमने भोगा न हो; इसे भव-परिवर्तन कहते हैं
जीव के भाव निमित्त या बिना निमित्त के, कषाय अदि की तीव्रता या मन्दता, या मन-वचन-काय के योग आदि से परिवर्तित होते हैं इसे भाव परिवर्तन कहते हैं
हमने जाना की संसार में नया कुछ भी नहीं है
हमें बार-बार एक जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव मिल चुके हैं
अब हम जो कर रहे हैं, वह सब repetitions है
इसी तरह चीजों को बार-बार प्राप्त करने को एक परावर्तन कहा जाता है
मोह और अज्ञानता के कारण से जीव सोचता है कि उसे नया संसार मिला है
जबकि इसी रंग का शरीर, इन्हीं स्पर्श, रस, गन्ध आदि गुणों के साथ, इन्हीं वर्गणाओं को हम पहले कई-बार ले चुके हैं
सब कुछ नया लगता है लेकिन होता नहीं
जब यह हमारे विश्वास में आता है तो फिर मुक्ति की इच्छा होती है
हमने जाना कि पुद्गल-वर्गणाएँ आदि सीमित हैं, और वह नए-नए form में हमारे सामने आती रहती हैं
जैसे प्रकृति के चक्र में खाने-पीने की चीजें उसी रूप में बार-बार convert होती रहती हैं उसी तरह यह पुद्गल-चक्र भी कहीं-न-कहीं पूरा होता है
जिसे एक द्रव्य-परिवर्तन पूरा होना कहते हैं