श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 19
सूत्र - 12
सूत्र - 12
पूर्णता में सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती है। गुणस्थान और परीषह। ध्यान और प्रवृत्ति में परीषह का अनुभव समान नहीं होता। क्या भगवान में क्षुधा परीषह होती है?
बादरसाम्पराये सर्वे॥9.12॥
04, nov 2024
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निम्न में से क्या बादर साम्पराय है?
नौंवा गुणस्थान*
दसवाँ गुणस्थान
ग्यारहवाँ गुणस्थान
तेरहवाँ गुणस्थान
आज हमने उस मत का खण्डन सीखा /समझा
जिसमें केवली भगवान् को भी कवलाहारी मानते हैं
मानाकि जिनेन्द्र भगवान में वेदनीय के उदय में
क्षुधा, पिपासा आदि
ग्यारह परीषहों का सद्भाव रहता है
परन्तु वे उस कष्ट के प्रतिकार के लिए कवलाहार नहीं करते
आठवें अध्याय के सूत्र चार में जाना था कि
वेदनीय का सम्बन्ध मोहनीय से होता है।
बिना मोहनीय के वेदनीय एक जली हुई रस्सी के समान हो जाता है
उसकी सिर्फ shape रह जाती है,
उपयोगिता नहीं
केवली अवस्था में मोहनीय का नाश होने से
अब वेदनीय कुछ काम का नहीं रहता।
2. अगर मान भी लें कि
अनंत चतुष्टय पैदा होने के उपरान्त भी
उन्हें मंद असातावेदनीय का वेदन होगा, तो
उस अनन्त सुख रुपी शक्कर के समुद्र में
असाता रुपी नीम की एक बूँद,
समुद्र को खारा नहीं कर सकती।
अतः वे उस क्षुधा का नहीं,
अपितु अनन्त सुख का ही वेदन करते हैं।
3. यहाँ परीषह तो सिर्फ असातावेदनीय के उदय की अपेक्षा से बताया है
अन्यथा वज्रवृषभनाराच संहनन कारण
कष्ट तो उन्हें मुनि अवस्था में प्रवृत्ति में भी नहीं होता
उन्हें तप्त ऋद्धि जैसी ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं,
जिससे वे जितना तपते हैं
शरीर में उतना तेज़
और ऋद्धियाँ आतीं हैं।
तीर्थंकरों को तो आहार के लिए जाना होता है
पर बाहुबली जैसे मुनि तो
उसके लिए भी नहीं जाते।
जब मुनि अवस्था में ही
भूख की वेदना नहीं होती
और अलाभों को सहन करने की शक्ति होती है
तो अनन्तवीर्य वाली अरिहंत अवस्था में
इस वेदना का कोई अवसर ही नहीं है।
4. केवली को अनन्त ज्ञान में
संसार का सारा दुःख दिख रहा होता है-
slaughterhouse,
जीवों के मांस,
लोगों का मरना,
अर्थियाँ आदि।
ऐसे में जब सामान्य साधु भी भोजन नहीं करते,
अन्तराय पालते हैं,
तो सब देखते हुए अरिहन्त प्रभु कैसे आहार कर सकते हैं!
5. कुछ लोग इसके लिए तर्क देते हैं कि
उनका अतिशयरूप, गुप्तरूप से भोजन होता है
अगर अतिशय ही मानना है
तो फिर हम आग्रह छोड़कर
भूख न लगने को ही अतिशय
क्यों नहीं मान लेते!
6. केवलज्ञान होने पर
आत्मा शरीर से अपना सम्बन्ध छोड़ देती है।
जिह्वा इन्द्रिय
मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से
स्वाद देती है,
एहसास दिलाती है कि मैं भोजन कर रहा हूँ।
जब क्षयोपशम ही नहीं रहता,
तो इन्द्रियों का कुछ काम ही नहीं रहता।
वे अतीन्द्रिय हो जाते हैं।
जब जिह्वा का कुछ काम ही नहीं होगा,
तो भोजन कैसे होगा?!
7. इस विरोधावास को ही सिद्धांत मान लेना
दिगम्बर और श्वेताम्बर मतों के विभाजित का बड़ा point है।
8. यदि क्षुधा पिपासा में भगवान् भोजन करते हैं
तो फिर शीतोष्ण परीषहों में
उन्हें ठण्ड और गर्मी से भी बचेंगे!
ऐसे में परम औदारिक शरीर का
कोई औचित्य नहीं रहता!
9. अरिहन्त भगवान के
साता के ईर्यापथ आस्रव होता है
और अन्तरंग में अनन्त सुख होता है
ऐसे में उन्हें असाता के मन्द उदय का वेदन नहीं होता।
उनमें परीषह नहीं परीषह जय होता है।
तभी उनकी जय बोली जाती है।
जय उन्हीं की बोली जाती है
जो हमसे कुछ ज्यादा जीत लेते हैं।
अतः
भगवान के ग्यारह परीषह होते भी हैं
और एक अपेक्षा से नहीं भी होते।
10. सूत्र बारह बादरसाम्पराये सर्वे में हमने जाना
बादर साम्पराय यानि,
नौवें गुणस्थान तक
सभी गुणस्थानों में सभी परीषह होते हैं।
यानि परीषह सिर्फ मुनि-महाराज के नहीं होते
हमें भी होते हैं।
पर हम उनका निवारण कर लेते हैं।
बादर साम्पराय का अर्थ है मोटी कषाय।
जिसकी कषाय जितनी मोटी होती है
उसके उतने परीषह होते हैं।
यहाँ परीषह होते हैं,
परीषह-जय नहीं।
11. इस प्रकार, नौवें गुणस्थान तक बाईस,
दसवें से बारहवें तक चौदह,
और उसके बाद ग्यारह परीषह होते हैं।