श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 26
सूत्र - 09
सूत्र - 09
दर्शन मोहनीय कर्म। हास्य कषाय। रति भाव। शोक कषाय। भय कषाय। जुगुप्सा भाव।
दर्शन-चारित्र-मोहनीया-कषाय-कषायवेदनीयाख्यास्-त्रि-द्वि-नव- षोडशभेदाः सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयान्य-कषाय-कषायौ हास्य-रत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा-स्त्री-पुन्नपुंसक-वेदा अनन्तानु-बन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलन-विकल्पाश्चैकश: क्रोध मान-माया-लोभाः॥8.9॥
16th, May 2024
Ranjana Bohra
Jaipur
WINNER-1
Alka Badjatya
Indore
WINNER-2
सरिता जैन
खतौली मुजफ्फरनगर
WINNER-3
दूसरे से ग्लानि या घृणा किस भाव से पैदा होती है?
हास्य
अरति
भय
जुगुप्सा*
हमने जाना कि दर्शन मोहनीय कर्म के तीन भेद होते हैं - सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व
वैसे तो दर्शन मोहनीय कर्म मिथ्यात्व रूप ही होता है
सम्यग्दर्शन प्राप्ति से पूर्व इसके ये तीन टुकड़े हो जाते हैं
अतः ये तीनों ही कर्म एक मिथ्यात्व से ही बने हैं
सम्यग्मिथ्यात्व में मिथ्यात्व का रस अनन्त गुणा हीन होता है
और सम्यक्त्व में उससे भी अनन्त गुणा हीन होता है
मिथ्यात्व के उदय में सम्यक्त्व नहीं रहता
जीव तत्त्व को कुतत्त्व, अतत्त्व के रूप में श्रद्धान करता है
सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में तत्त्व और कुतत्त्व का भेद, जीव की श्रद्धा में रहता है
वह तत्त्व को तत्त्वरूप में और अतत्त्व को अतत्त्वरूप जानता है
यह श्रद्धा को विचलित तो करती है
पर विपरीत नहीं बनाती
सम्यग्दर्शन का घात नहीं करती
मिश्र सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय में मिले-जुले परिणाम होते हैं
इसमें सम्यक श्रद्धा भी होती है और अश्रद्धा भी
जैसे दही और गुड़ में खट्टा-मीठा भाव होता है
वैसे ही तत्त्व और कुतत्त्व दोनों को मानने का भाव होता है
हमने जाना कि अकषाय वेदनीय चारित्र मोहनीय कर्म में
क्रोध आदि कषाय का भाव नहीं होता
अपितु छोटी कषाय होती है
जिसे हम ईषत् कषाय या नोकषाय कहते हैं
हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद इसके भेद हैं
हास्य कर्म के तीव्र उदय में हास्य पैदा होता है
यह आत्मा का स्वभाव नहीं है
हमेशा इसमें रहना सम्भव नहीं है
किसी भी प्रकार की चिन्ता, मद, खेद आदि से रहित
सामान्य भाव प्रसन्न भाव होता है
यह हमेशा रह सकता है
हास्य और प्रसन्न भाव में वही अन्तर है
जो smile करने और simply happy रहने में होता है
smile करना पड़ता है
चूँकि हास्य कर्म जनित है
इसलिए अरिहंत भगवान हँसते नहीं हैं,
प्रसन्न रहते हैं
आपके हँसने से किसी को बुरा लग सकता है
रति भाव के कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सुहावने लगते हैं
जैसे कोई स्थान, कोई समय, कोई season, कोई लोग, शरीर आदि
इससे एक दूसरे के प्रति लगाव पैदा होता है
रति के विपरीत अरति में
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अच्छे नहीं लगते
मन में उद्वेग आ जाता है
जहाँ रति आत्मा के अन्दर लगाव पैदा करती है
अरति अलगाव पैदा करती है
समभाव या साम्यभाव में न लगाव होता है और न अलगाव
शोक कषाय अरति के साथ ही होती है
इसमें जीव विकल रहता है
भीतर कुछ अभाव सा भाषित कर दु:खी रहता है
मुनि महाराज के विहार से वहाँ के लोगों में तत्काल कुछ खालीपन सा लगता है
यह भी हल्का सा शोक भाव है
जितनी आपकी intensity होगी, उतना ही आपके लिए शोक होगा
बाहरी निमित्त के कारण भीतर भय कषाय की उदीरणा होने से
हमारे अन्दर डर का भाव पैदा होता है
जैसे किसी चीज से भयभीत होना,
एक बार डरकर वर्षों तक डरे रहना,
या इसके फल से धारणा बन जाना और उस चीज को सोच कर ही डर लगना आदि
जुगुप्सा भाव के कारण दूसरे से ग्लानि, घृणा पैदा होती है
जहाँ अरति में कहीं पर भी मन नहीं लगता
जुगुप्सा में अन्दर एक ग्लानि का भाव पैदा होता है
जैसे मांस, खून इत्यादि अपवित्र, अशुद्ध वस्तु को देखकर भागना
तीन वेदों के बारे में हमने पहले जाना था
स्त्रीवेद के उदय से पुरुष अच्छा लगता है,
पुरुषवेद के उदय से स्त्री
और नपुंसकवेद के उदय में दोनों अच्छे लगते हैं
कषाय जितनी तीव्र होती है, उतनी ही तीव्र वेदना होती है
वेदना का प्रतिकार अर्थात् कषाय का प्रतिकार
कषाय भाव को चारित्र से जीता जाता है