श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 30
सूत्र - 20
सूत्र - 20
श्रावक के लिए विनय तप का आचरण। तप की महत्ता। वैयावृत्ति तप अर्थात् आपत्तियों को दूर करना। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में अतिथि संविभाग व्रत में वैयावृत्ति तप को भी रखा गया है। वैयावृत्ति करने से सद्भाव प्राप्त होता है। यह तप कर्म निर्जरा का कारण है।
प्रायश्चित्त-विनय-वैयावृत्त्य-स्वाध्याय-व्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तरं॥9.20॥
20, nov 2024
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साधु-साध्वियों, व्रतियों एवं गुणीजनों आदि की आपत्तियों को दूर करना कौनसे तप के अंतर्गत आएगा?
प्रायश्चित्त
विनय
वैयावृत्त्य*
व्युत्सर्ग
अन्तरंग तप के प्रकरण में आज हमने जाना कि
ज्ञान से यदि अहंकार आए तो उसे दूर करने के लिए
विनय तप करना चाहिए,
उससे ज्ञान digest होगा।
जैसे उदराग्नि भोजन को पचाकर
उसके सारभूत तत्त्व को शरीर में पहुँचा कर स्फूर्ति देती है।
वैसे ही अन्तरंग तप
कषायों के मल को जलाकर,
आत्मा को तरोताजा बनाते हैं,
स्फूर्ति देते हैं।
तप सिर्फ साधु के लिए नहीं होते
श्रावक के छह आवश्यक -
देव पूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान
में भी संयम और तप आते हैं।
खुद संयम पालकर ही हम उसकी महत्ता समझ सकते हैं।
जब हम गुणों की importance समझते हैं
तभी उनका आदर करते हैं
अन्यथा कितना भी गुणवान व्यक्ति होगा
हम अपने भाव में ही रहेंगे।
आदर की कमी से न सिर्फ कर्मबन्ध होगा
बल्कि निर्जरा के साधन का उपयोग नहीं करना
हमारी बड़ी अज्ञानता होगी।
इसलिए हमें भी यथाशक्ति ये तप करने चाहिए।
इनसे हल्कापन आता है
जैसे भोजन digest होने पर,
शरीर हल्का लगता है,
वैसे ही अन्तरंग तप,
मन को fresh और light करते हैं।
हल्का और शुद्ध मन प्रसन्न होता है।
और तप के प्रति हमें और उत्साहित करता है।
यह प्रसन्नता महसूस करने से
हमें तप अच्छे लगेंगे और
हमें उनसे डर नहीं लगेगा।
बाह्य तप कर पाना तो अच्छा है ही
पर वह नहीं होता हो तो
हमें कम-से-कम अन्तरंग तप से तो नहीं डरना चाहिए।
तीसरे वैयावृत्त्य तप का अर्थ होता है
सेवा करना,
साधु, साध्वी, व्रती, गुणीजनों के कष्टों को दूर करना।
इसमें सिर्फ शाम को पैर दबाना नहीं आता,
कोई भी किसी भी ढंग से आपत्ति को दूर कर सकता है।
जैसे यह उपलब्ध कराने से साधक को अनुकूलताएँ होंगी,
प्रतिकूलता कम होगी
ऐसा विचार कर, कुछ भी करना- वैयावृत्ति में आता है।
पुरुषों को बाहरी चीजों का ज्ञान होता है
चीजें कैसे, कहाँ पर, क्या होनी चाहिए।
और महिलाओं को खाने-पीने का ज्ञान होता है
किस मौसम में, क्या चीज़ अनुकूल होगी?
यही ज्ञान वैयावृत्ति के माध्यम से हमारी कर्म निर्जरा कराता है।
रत्नकरण्ड-श्रावकाचार में
अतिथि-संविभाग व्रत में वैयावृत्ति आता है।
और साधु की वैयावृत्ति, साधु भी करते हैं।
वैयावृत्ति में शरीर की क्रिया बाहर से दिखते हुए भी
यह अन्तरंग तप इसलिए है क्योंकि
रत्नत्रय से सहित गुणी जनों के
गुणों के प्रति आकृष्ट होकर
“इनकी आपदा दूर हो”,
“इन्हें अनुकूलताएं हों”
यह भाव हमारी मानसिकता को शुद्ध बनाता है
और हमारे अन्दर रत्नत्रय के प्रति आदर पैदा करता है।
यह भाव ही अन्तरंग तप है।
शुद्ध चित्त से,
विनयपूर्वक की गई वैयावृत्ति ही सुशोभित होती है,
अन्यथा एहसान मात्र रह जाता है।
नम्रता के साथ वैयावृत्ति करके प्रसन्न होता देख
साधक को भी उनके प्रति सद्भाव उमड़ता है-
“इसका अच्छा हो”,
“कहीं इसे कोई दुःख तो नहीं”।
जो तत्कालिक आशीर्वाद से भी बड़ा होता है।
वे अपनी ज्ञान निधि उसे देने की कोशिश करेंगे।
जैसे सेवा से प्रसन्न होकर माता-पिता बच्चों को निधियाँ देते हैं।
सेवा और विनय से संघ परस्पर अनुकूलता से रहता है।
श्रावकों को भी परस्पर वैयावृत्ति का भाव रहना चाहिए।
जो व्रत आदि को तत्पर हो रहे हैं
या उसमें कुछ कमी महसूस कर रहे हैं
या व्रतों से विचलित हो रहे हैं
उनकी आपत्ति को दूर करने के,
सेवा के भाव से
समाज सुदृढ बनता है।
इसके बिना समाज टूटता है
और हर व्यक्ति अपना-अपना करता है।
हमें सेवा करते हुए खुश होना चाहिए
कि हमारे कारण किसी के व्रतों में दृढ़ता आ रही है।
यह भाव बहुत बड़ा तप होता है।
जिससे निर्जरा होती है।
बिना इस भाव के ज्ञान, साधना, उपवास,
कुछ काम का नहीं रहता।