श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 33
सूत्र - 22
सूत्र - 22
आलोचना-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग-तपश्छेद-परिहारोप-स्थापनाः॥9.22॥
25, nov 2024
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निम्न में से किसका अर्थ भेद करना है?
तप
विवेक*
व्युत्सर्ग
कायोत्सर्ग
प्रायश्चित्त तप का चौथा भेद विवेक होता है
विवेक यानि भेद करना।
जब साधक बार-बार गलतियाॅं repeat करें
और प्रायश्चित्त माॅंग लें,
तो अक्षम्य गलतियों की अनुभूति कराने के लिए
उन्हें अलग से उपेक्षित किया जाता है।
जैसे उनका स्थान अलग कर देना,
संघ में किसी के साथ नहीं बैठना,
संघ के लोगों से बात नहीं करना,
कमण्डल संघ में न रख, अलग रखना
यानी विवेक से रखना।
या आहार में दाल, रोटी, सब्जियाॅं मिलाकर नहीं खाना आदि
यदि और कठिन प्रायश्चित्त देना हो
तो उनके साथ नमोस्तु के लिए भी मना कर सकते हैं।
यह सब सहन करने पर ही प्रायश्चित्त से,
दोष शुद्धि होगी।
दीक्षा के बाद सब एकदम निर्दोष नहीं बन जाते।
गलतियाॅं करने पर प्रायश्चित्त लेकर
खुद को शुद्ध बनाने की प्रक्रिया
लंबे समय तक चलती है।
संघ का संचालन, आचार्य परमेष्ठी करते हैं-
शिष्यों का पालन,
उन्हें स्वाध्याय कराना,
उन्हें गुण और दोषों की जानकारियाॅं देना।
किसको क्या प्रायश्चित्त देना?
किससे क्या पंचाचार का पालन कराना?
किसे क्या दिशा-निर्देश देना?
ये आचार्य के प्रमुख काम होते हैं।
जिनसे वे पीछे नहीं हट सकते।
प्रायश्चित्त का पांचवाँ भेद व्युत्सर्ग अर्थात कायोत्सर्ग होता है
जब यह स्वेच्छा से किया जाता है तो अंतरंग तप में आता है
और जब गुरु देते हैं तो प्रायश्चित्त में।
स्वेच्छा से घण्टों कायोत्सर्ग में खड़े रहने वालों को भी
प्रायश्चित्त में मिला थोड़े समय का कायोत्सर्ग भारी लगता है।
जैसे करोड़ों रूपए लुटाने वाले को
एक रूपया दंड में भरना कठिन होता है।
दण्ड छोटा हो, तो भी भारी लगता है,
क्योंकि उससे insult feel होती है।
लेकिन साधक insult feel नहीं करते,
बल्कि उसे चित्त शुद्धि का,
अपने दुष्कृत को साफ करने का उपाय जानकर
हर्षपूर्वक करते हैं।
गुरू आज्ञा पालने से वे निर्दोष हो जाते हैं
और free feel करते हैं।
व्युत्सर्ग में कायोत्सर्ग किया जाता है।
सत्ताईस श्वासोच्छ्वास में नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ना - एक कायोत्सर्ग होता है।
प्रायश्चित्त में कितने भी कायोत्सर्ग मिल सकते हैं।
सामूहिक आचार्य भक्ति में आचार्य श्री,
सुबह दो
और शाम को चार कायोत्सर्ग
प्रायश्चित्त में देते थे।
शाम को भक्ति के बाद कम-से-कम तीन कायोत्सर्ग किये जाते हैं।
जो एक तरह का प्रायश्चित्त ही होता है।
यह गुरु के समक्ष या परोक्ष- दोनों रूप होता है।
सुबह से शाम तक, गमनागमन आदि की क्रियाओं के लिए
प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त, भक्तियाॅं आदि
करके साधक खुद को साफ रखते हैं।
हम तो अपना घर एक ही बार साफ़ करते हैं
पर वे दिन में तीन बार
आत्म-शुद्धि करते हैं
और खुद को गन्दा नहीं होने देते।
इसलिए प्रायश्चित्त को-
आत्म-शुद्धि,
आत्म-प्रक्षालन,
आत्म-शोधन,
आत्ममंथन,
आत्म-दोष निराकरण
आदि भी कहते हैं।
प्रायश्चित्त में तप भी दिया जाता है।
दोष और शिष्य की योग्यता के अनुसार
गुरू, कितने भी उपवास
या फिर उनोदर या रस परित्याग दे सकते हैं।
प्रायश्चित्त के बाद गणित नहीं लगाना चाहिए
कि इस दोष के लिए उन्हें तो थोड़ा सा प्रायश्चित्त दिया था
और हमें अनशन दे दिया।
यह आलोचना का दोष होता है।
जैसे doctor, patient के अनुसार अलग-अलग दवाई देता है
वहाँ patient comparison नहीं करते,
वैसे ही शिष्य का प्रायश्चित्त
उनकी योग्यता के अनुसार, उनके लिए होता है।
इसलिए प्रायश्चित्त लेने के बाद विचार विमर्श नहीं करना चाहिए।
जो उपवास खूब कर लेते हैं, पर उनोदर नहीं कर पाते
कभी-कभी गुरू उन्हें उनोदर या रस-परित्याग दे देते हैं।
जैसे बिना घी के रोटी खाना या कोई भी रस नहीं लेना आदि।
किसी के लिए रस-परित्याग करना उपवास करने से कठिन हो सकता है
फिर भी वे श्रावकों को नहीं बोलते कि ‘मेरा त्याग है, ध्यान रखना’।