श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 29
सूत्र - 19,20
सूत्र - 19,20
अन्तरंग तपों का प्रभाव आत्मा पर विशेष रूप से पड़ता है। बाह्य और अन्तरंग तप में अन्तर । प्रायश्चित तप से हृदय की शुद्धि होती है । प्रायश्चित में दो शब्द हैं- प्रायश् और चित्त। प्रायश्चित तप को अन्तरंग तप में प्रथम रखा गया है। विनय तप से मान कषाय टूटती है। गुरुजनों से अपने पाप छुपाना, विनय में छल कहलाएगा। प्रायश्चित से ज्यादा परिणाम विनय से शुद्ध होंगे। विनय में भी मान कषाय कम होती है। अहंकार जैसी विकृति आने पर अन्तरंग तप का सहारा लेना चाहिए।
अनशनाव-मौदर्य-वृत्तिपरिसंख्यान-रस-परित्याग-विविक्त - शय्यासन-कायक्लेशा बाह्यं तपः॥9.19॥
प्रायश्चित्त-विनय-वैयावृत्त्य-स्वाध्याय-व्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तरं॥9.20॥
19, nov 2024
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प्रायश्चित्त के बाद कौनसा तप आता है?
वैयावृत्त्य
स्वाध्याय
विनय*
ध्यान
बाह्य तप के बाद-
आज हमने सूत्र बीस प्रायश्चित्त-विनय-वैयावृत्त्य-स्वाध्याय-व्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तरं में अन्तरंग तप जाने।
पहले कहे जाने वाला पूर्व,
और बाद वाला उत्तर होता है
यहाँ उत्तरम् शब्द अन्तरंग तप को बताता है।
जहाँ बाह्य तप का विशेष प्रभाव
शरीर और इन्द्रियों पर दिखता है
अन्तरंग तप विशेष रूप से
अन्तरंग से, मन से
किया जाता है
और इसका प्रभाव
आत्मा और मानसिकताओं पर आता है।
इससे हमने निर्मल मन,
और कम कषाय-युक्त मानसिकताओं
की अनुभूति होती है।
अन्तरंग तप directly कर्म निर्जरा करता है,
और बाह्य तप, अन्तरंग के through
यानि indirectly कर्म निर्जरा करता है।
बाह्य तप अन्य मतावलम्बी भी करते हैं,
लेकिन अन्तरंग तप हर कोई नहीं कर सकता।
अच्छे भाव और ज्ञान रखने पर ही
अन्तरंग तप पल सकता है।
अन्तरंग की नकल के लिए अकल चाहिए,
बाह्य के लिए नहीं।
जो भीतरी परिवर्तन बाह्य तपों से नहीं आता
वह अन्तरंग तपों से आता है।
अन्तरंग तप की शुरुआत प्रायश्चित तप से होती है
प्रायश्चित मतलब अपने दोषों को दूर करने के लिए-
भीतर-ही-भीतर खुद को बुरा कहना,
आत्म-आलोचना करना,
निन्दा करना,
पश्चाताप करना, और
गुरुजनों से निवेदन करके प्रायश्चित का पालन करना।
इससे प्रमाद द्वारा, ज्ञान या अज्ञान में किये गए दोषों की शुद्धि होती है।
प्रायश्चित में प्रायश् मतलब मनुष्य
और चित्त मतलब उसका कर्म होता है।
यानी जिस तरह से मनुष्य अपना कर्म शुद्ध बनाता है
वह प्रायश्चित कहलाता है।
इसमें, दोषों की शुद्धि के लिए
निश्छल बालक की तरह,
आत्मसाक्षी पूर्वक और गुरु के समक्ष
आत्म-निन्दा की जाती है।
इसमें मन को मरोड़ना पड़ता है।
मन दोषों को कहना न चाहे तो भी
उसे twist करके, उसके against जाकर
निर्जरा के लिए,
प्रायश्चित के भाव में आया जाता है।
जैसे बाह्य तपों में अनशन प्रमुख होता है
वैसे ही अन्तरंग तपों में प्रायश्चित।
इससे ही अन्तर्जगत की यात्रा शुरू होती है।
यह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया होती है।
जब तक मन शुद्ध नहीं होगा,
पापों को ढकने का भाव रहेगा,
तब तक आगे के तपों का कोई प्रयोजन नहीं रहेगा।
इसलिए हम अपने दोषों पर पर्दा नहीं डालें,
बल्कि उन्हें उघाडें,
भीतर-ही-भीतर पश्चाताप की अग्नि में जलें।
इससे हमारी हृदय-शुद्धि, चित्त-शुद्धि होगी।
प्रतिक्रमण में यही भाव किया जाता है।
इसी से योगी ध्यान तक पहुँचते हैं।
दूसरे तप विनय में
गुणीजनों के प्रति नम्रता का भाव होता है।
इससे मान-कषाय का हनन होता है,
और गुणी जनों के प्रति आदर बढ़ता है
जिससे हमारे अन्दर गुणों की वृद्धि होती है।
प्रायश्चित्त की तरह
विनय में भी मन को बार-बार लगाना होता है।
विनय में आने से पहले प्रायश्चित का भाव होना चाहिए।
यदि हम गुरुजनों से अपने पाप छुपाते हैं
तो वह विनय निश्छल नहीं रहेगी,
बस दिखावा होगा।
मान को तोड़कर ही भीतर से विनम्रता का भाव आता है।
अन्यथा यूँ ही कुछ भी करना
हाथ जोड़ना, धोक देना बोझ भी लग सकता है
जैसे tax दे रहे हों।
हमें ऐसे भावों से बचना चाहिए।
हम जितना विनय करेंगे,
जितना भीतर से नम्र होंगे,
मान गलने से
हमारे परिणाम उतने ही शुद्ध होते चले जायेंगे,
प्रायश्चित से भी अधिक परिणाम विनय से शुद्ध होते हैं।
ये तप हमारी मान-कषाय को
हमारी ego को कम करते हैं।
क्योंकि मान होगा तो हम
अपने दोषों को किसी से कह नहीं पाएँगे।
कुछ लोग ज्ञानार्जन कर अहंकारी होकर
सरलता से रहित हो जाते हैं।
उनका ज्ञान भीतर digest नहीं होता।
digest करने में उपयोगी उदराग्नि की तरह
इन्हें अन्तरंग तप की अग्नि का सहारा लेना चाहिए।