श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 13
सूत्र - 07
सूत्र - 07
एकत्व भावना। अन्यत्व भावना। अशुचि भावना। आस्रव और संवर भावना। निर्जरा भावना। लोक भावना। बोधिदुर्लभ भावना।
अनित्याशरण-संसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रव- संवर-निर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ-धर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तन-मनुप्रेक्षाः॥9.07॥
18, oct 2024
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शरीर अन्य होने के साथ साथ और क्या होता है?
नित्य
शाश्वत
ज्ञानवान
अशुचि*
संसार भावना के वर्णन में हमने जाना
कि बच्चों में कुछ कर दिखाने का उफान रहता है।
दूसरे संसार की भावना में
उन्हें इस संसार भावना का विचार भी नहीं आता
पहले लगता है job job से वे बड़े बन जाएँगे
पर जब job लगने पर सब सामान्य हो जाता है,
उनके तेवर ठण्डे हो जाते हैं!
ऐसे में हमें संसार भावना भानी चाहिए कि
job लाखों लोग कर रहे हैं।
संसार में हम कर ही क्या लेंगे!
अपने कमाने का साधन ही तो जुटा पाएँगे!
यही करते हुए,
सभी भटक रहे हैं!
इस भावना से संसार-स्वरुप समझ आता है-
इससे संसार की कुछ चीज़ पाने की ज़िद नहीं रहती।
तत्त्व ज्ञान में लिप्तता से,
अलौकिक आनन्द आने लगेगा
और हम अज्ञानता से पूरी उम्र गंवाने से बच जाएँगे।
‘संसार में कुछ नहीं है’ - इस भाव से
आत्मा की ओर दृष्टि जाती है,
और एकत्व भावना आती है।
इसमें हम ध्यायें कि
जब हम अकेले ही जीते हैं,
अकेले ही मरते हैं,
तो फिर तरह-तरह के झंझट, तमाशे,
क्यों ही करने!
संसार में आत्मा के परिणमन के अलावा कुछ नहीं है!
इस भावना से-
हमारा चित्त शान्त होता है
और हम अंतर्मुखी बनते हैं।
सब कुछ आत्मा के आश्रित दिखने पर-
बाहर की चीज़ों के प्रति अन्यत्व भाव आएगा।
बस ज्ञान-दर्शन रूप मेरा आत्मा ही मेरा है,
वही शाश्वत है,
वही नित्य है
इसके अलावा सब चीज़ें,
मुझसे भिन्न हैं।
इस भावना से-
जल में कमल की तरह,
हम सबके बीच में रहते हुए भी
सबसे भिन्न रहेंगे।
बाकी सब चीज़ें तो बस अन्य हैं
पर हमारा शरीर अन्य भी है और
अशुचि भी।
अशुचि भावना से
शरीर से ममत्व का त्याग होता है,
और वैराग्य बढ़ता है।
इस प्रकार बारह भावनाओं से,
वैराग्य बढ़ते-बढ़ते,
भीतर गमन शुरू होकर,
आत्मा में उतरने की स्थिति बनती है।
सातवीं आस्रव भावना में हम चिन्तन करें कि
सब अच्छा या बुरा -
मेरे मन से,
मेरी, आत्मा के परिणामों से हो रहा है।
इन परिणामों से मैं
शुभ आस्रव भी कर सकता हूँ
और अशुभ भी।
अपने परिणामों को संभालते हुए,
अशुभ से रोककर,
शुभ में लगना ही आस्रव भावना है।
आस्रव को समझ कर
अशुभ को रोक लेना,
उस पर विजय पा लेना-
संवर भावना का फल है।
संवर सुख और आस्रव दुःख देता है।
जो विचार, जो चिन्तन अपने control में नहीं
वह दुःखदायी है।
इस प्रकार अन्तर्मुखी प्रवृत्ति बन जाने पर
पूर्व संस्कारों की,
पूर्वकृत कर्म और,
उनसे होने वाले राग-द्वेष के भावों की
निर्जरा होने लगती है।
वे संस्कार मिटते चले जाते हैं।
दसवीं लोक भावना में
लोक का आकार,
उसमें जीवों के स्थान
आदि का चिन्तन होता है।
लोक में बस-
top पर स्थित सिद्ध-भूमि ही
संसरण से रहित है।
इसे भाने से हम पञ्चम गति को समझते हैं कि-
संसार में अनेक जीव होते हुए भी
कोई हमारा सहयोगी नहीं,
कोई उपादेय नहीं,
एकमात्र सिद्धात्मा उपादेय हैं।
ग्यारहवाँ बोधिदुर्लभ भाव में हम ध्यायें कि-
हमें मनुष्य जन्म दुर्लभता से मिला है।
इसमें सम्यग्दर्शन मिलना और दुर्लभ है
इसके बिना ही चारों गतियों में संसरण है
सम्यग्दर्शन होने पर भी
व्रत के भाव बनना दुर्लभ है।
और व्रत हो जाने पर भी
आत्मा की भावना करना दुर्लभ है।
इन उत्तरोत्तर दुर्लभताओं को प्राप्त करते-करते
हमारे अन्दर धर्म उतरता जाएगा,
यही धर्म भावना है।
धर्म भावना यानि आत्म-धर्म की प्राप्ति
ये बारह भावनाएं हमें आत्मा तक लाती हैं-
इसलिए इन्हें तत्त्वानुचिन्तन कहते हैं।
तत्त्व चिन्तन बड़े-बड़े ग्रन्थ पढने से नहीं,
बल्कि इन भावनाओं से होता है,
इन्हीं से हमारे अन्दर तत्वज्ञान आता है।