श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 48

सूत्र -36

Description

जिनागम के अनुसार जीव के शरीर की व्याख्या :- मूल शब्दों से संस्कृत के नियम अनुसार बने हुए शब्दों का महत्व l औदारिक शरीर का वर्णन l औदारिक-शरीर ही सबसे महान काम करता है l शरीर के प्रति भी अनेकान्तिक-दृष्टिकोण रखना चाहिए l उदारता संयम और चारित्र धारण करने में हैं, प्रमादी होने में नहीं l कार्मण शरीर मूल है, तो उसे आखिर में लिखने का कारण l औदारिक शरीर का महत्व कार्मण शरीर को नष्ट करने में l सल्लेखना में औदारिक-शरीर को छोड़ा जाता है, नष्ट नहीं किया जाता l

Sutra

औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ।।३६।।

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WINNERS

Day 48

05th July, 2022

Kumud jain

Sagar

WIINNER- 1

Vandana jain

Satna m p

WINNER-2

Prem jain

Aligarh

WINNER-3

Sawal (Quiz Question)

मोक्ष-पुरुषार्थ किस शरीर से होता है?

  1. औदारिक शरीर से *

  2. वैक्रियिक शरीर से

  3. आहारक शरीर से

  4. तैजस शरीर से

Abhyas (Practice Paper):

Summary


  1. जीव का जन्म होता है, तो वह शरीर को धारण करता है

    • विभिन्न नाम-कर्मों के उदय के कारण से ये शरीर अलग-अलग प्रकार के होते हैं

    • 'शीर्यते इति शरीर:' अर्थात जो शीर्यते यानि शीर्ण होता है उसे शरीर कहते हैं

    • समभिरूढ़-नय की अपेक्षा से शरीर का तात्पर्य है -

      1. जिसमें कर्म-परमाणु या नोकर्म परमाणु आते जाते रहते हों

      2. जिसमें उपचय और अपचय दोनों क्रियाएँ जिसमें होती हों

      3. नए शरीरगत परमाणुओं का बंध और पुराने परमाणुओं की निर्जरा होती हो


  1. सूत्र छत्तीस में हमने जाना कि शरीर पाँच प्रकार के होते हैं

    • औदारिक

    • वैक्रियिक

    • आहारक

    • तैजस शरीर और

    • कार्मण


  1. औदारिक शब्द उदार शब्द से बनता है

    • अर्थात् जो बड़ा हो, स्थूल हो, महान हो

    • उदार भाव सबको समाहित कर लेने का भाव है


  1. औदारिक शरीर उदार, स्थूल, बड़ी काया वाला होता है

    • जैसे हजारों योजनों में फैला हुआ महामत्स्य


  1. इतना उदार-स्थूल शरीरपना अन्य शरीरों का नहीं होता

  2. यह पाँच शरीर में सबसे बड़ा काम करने वाला भी है

    • इससे चार प्रकार के पुरुषार्थों में दुर्लभतम मोक्ष-पुरुषार्थ करते हैं

    • यहाँ तक केवलज्ञान आदि की प्राप्ति भी इसी से होगी


  1. हमने समझा कि हमें शरीर को अनेकांत दृष्टि से देखना चाहिए

    • केवल अशुचि भावना से हेय दृष्टि से नहीं मानना चाहिए

    • अशुचिता अलग चीज है और हेयता अलग

    • हमें जानना चाहिए कि हम शरीर से ही धर्म साधन कर सकते हैं



  1. हम शरीर को ही अपना स्वरूप न समझें और राग, मोह से दूर रहें इस दृष्टि से

    • शरीर और आत्म-तत्त्व के विपरीत स्वभावों को समझाया जाता है

    • किन्तु इस पंचम काल में भी संयम ग्रहण करना, गुणस्थान वृद्धि करना, कर्म निर्जरा आदि बड़े काम भी इसी औदारिक शरीर से होंगे


  1. हमने जाना कि उदारता संयम और चारित्र धारण करने में हैं, प्रमादी होने में नहीं

    • जो जितना काम-चोर होगा वह उतनी ही जल्दी रोगी भी होता है


  1. सम्यग्दर्शन तो किसी भी शरीर से हो सकता है किन्तु संयम सिर्फ औदारिक शरीर से होगा

  2. इसलिए आचार्यों ने क्रम में औदारिक शरीर को सबसे पहले लिखा है

    • कार्मण शरीर के कारण से ही सब शरीरों की उत्पत्ति होती है

    • फिर भी आचार्यों ने इसे आगे नहीं रखा

    • क्योंकि आदरणीय औदारिक शरीर ही है


  1. हमने जाना कि मुख्य प्रयोजन कर्म का नाश करना है अर्थात कार्मण शरीर का क्षय करना

    • औदारिक-शरीर का नाश करना प्रयोजन नहीं है

    • इसके माध्यम से हम कर्म का नाश कर सकते हैं


  1. संयम के साथ में सल्लेखना के समय पर इस औदारिक-शरीर को भी छोड़ा जाता है

    • लेकिन वह नाश करने के समान नहीं है

    • क्योंकि वह तो छूटने ही वाला होता है