श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 11
सूत्र - 09
सूत्र - 09
क्षेत्र से सिद्धि की अपेक्षा। उर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक से सिद्ध। नयों के माध्यम से क्षेत्र सिद्धि का विवेचन। काल की अपेक्षा से सिद्धत्व की प्राप्ति। सिद्धि में काल कभी बाधक नहीं होता है। नयों के आलम्बन से काल सिद्ध। गति की अपेक्षा से सिद्ध। प्रत्युत्पन्न नय से सिद्धों का वर्णन। लिंग की अपेक्षा से सिद्ध।
क्षेत्र-काल-गति-लिंङ्ग-तीर्थ-चारित्र-प्रत्येकबुद्ध-बोधित-ज्ञाना-वगाहनान्तर-संख्याल्प-बहुत्वत: साध्या:॥10.9॥
12, May 2025
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द्रव्य की अपेक्षा से कौनसे वेद से सिद्ध होते हैं?
पुरुषवेद से*
स्त्रीवेद से
नपुंसकवेद से
वेदरहित होकर
सूत्र जी के अन्तिम सूत्र में हमने सिद्धों की विशेषताएं जानी।
सबसे पहले क्षेत्र यानि स्थान आता है।
ऐसे तो सभी अपने आत्मा के प्रदेशों में ही सिद्धि को प्राप्त होते हैं।
जहाँ उनकी आत्मा के प्रदेश होंगे,
उस समय उसका जो आकाश का क्षेत्र होगा, वह उनका क्षेत्र कहलाएगा।
लेकिन फिर भी हम जानते हैं कि यह सम्मेदशिखर से सिद्ध हुए हैं, या पावापुरी से या मांगीतुंगी से सिद्ध हुए हैं।
पूरे ढाई द्वीप से सिद्ध होते हैं
जिसमें द्वीप और समुद्र दोनों आते हैं।
यदि कोई उपसर्ग के माध्यम से समुद्र में ले जाकर पटक दे
तो वे ध्यान को नहीं छोड़ते और वहीं से केवलज्ञान प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त में सिद्ध हो जाते हैं।
यदि कोई मुनि महाराज को किसी पर्वत से पटक दे तो वे गिरते हुए रास्ते में केवलज्ञान होकर सिद्ध हो सकते हैं।
ये ऊर्ध्वलोक सिद्ध कहलाते हैं।
और कोई देव अपनी विक्रिया से उन्हें सुरंग, बिल, नदियों के अन्दर आदि जगह ले जाए
तो वहाँ ध्यान में लगे-लगे सिद्ध होकर अधोलोक सिद्ध कहलाते हैं।
यह स्थान विशेष उनके पूर्व पर्याय की अपेक्षा होता है
इसे भूत प्रज्ञापन नय कहते हैं।
प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा वे केवल आत्म प्रदेशों से ही सिद्ध होते हैं।
छह कालों के अनुसार
सुषमा-दुषमा यानि तृतीय काल के अन्त में भी सिद्ध होते हैं
जैसे आदिनाथ भगवान हुए।
या दुषमा-सुषमा यानि चतुर्थकाल में सिद्ध होंगे।
विदेह क्षेत्र में भी यही दुषमा-सुषमा काल रहता है।
और चतुर्थ काल में उत्पन्न हुए जीव पंचम दुषमा काल में भी सिद्ध हो सकते हैं।
लेकिन पंचम काल में उत्पन्न हुआ जीव उसी काल में सिद्ध नहीं हो सकता।
इस तरह उत्सर्पणी और अवसर्पणी दोनों काल सिद्ध होते हैं।
काल की बाधा उसी काल में जन्मे मनुष्यों के लिए होती है।
किसी और काल के जीव को कहीं और छोड़ दिया जाए तो उनकी सिद्धि में काल बाधक नहीं होता।
यदि विदेह क्षेत्र में जन्मे किसी मनुष्य को
आज यहाँ भरत क्षेत्र के जंगलों में छोड़ जाए तो पञ्चम काल उनकी सिद्धि में बाधक नहीं बनेगा।
इस तरह हर काल में सिद्ध होते हैं
लेकिन मुख्य रूप से तृतीय काल के अन्त, अवसर्पिणी की अपेक्षा से चतुर्थ काल और पंचम काल में भी सिद्ध होते हैं।
यह भूत प्रज्ञापन नय के अनुसार है।
प्रत्युत्पन्ननय ठीक उस समय को देखता है जब वे सिद्ध हुए।
उसके अनुसार हर जीव एक समय में ही सिद्ध हो जाता है।
यानी तब जब वह अयोगकेवली गुणस्थान के माध्यम से 85 प्रकृतियों का अभाव कर लेते हैं।
गति की अपेक्षा
प्रत्युत्पन्ननय के अनुसार तो सिद्धगति में ही सिद्ध होते हैं।
और सिद्धगति से पहले मनुष्य गति से सिद्ध होते हैं।
इस भूतप्रज्ञापन नय के हमने दो भेद जाने-
एक निरन्तरता के साथ, बिना व्यवधान के।
जो सीधे मनुष्य गति से ही सिद्ध होते हैं।
पर व्यवधान के साथ उससे पहले के भव देखे जाते हैं
जैसे वे नरक से आए या तिर्यंच से?
लिंग की अपेक्षा सब निर्ग्रंथ लिंग के साथ ही सिद्ध होते हैं।
पर लिंग को हम स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद के अनुसार देखें
तो द्रव्य की अपेक्षा सबका पुरुषवेद ही होता है।
किन्तु भाववेद कुछ भी हो सकता है।
यह पूर्व की अपेक्षा ही है।
क्योंकि वेदों का नाश तो नौवें गुणस्थान में ही हो चुका होता है।
प्रत्युत्पन्न नय से सभी वेद रहित, लिंग रहित होकर ही सिद्ध होते हैं।
इन प्रकार यह अन्तर केवल हमारे ज्ञान वृद्धि के लिए होता है।
वास्तव में सिद्धों में कोई अन्तर नहीं होता।
सिद्ध कैसे भी हुए हों, रहते तो सब अपने ज्ञान और दर्शन में ही हैं।