श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 20
सूत्र - 06
सूत्र - 06
अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान। खजाना हमारे अन्दर छुपा है। जीव के भेद-भव्य और अभव्य। अभव्य में भी केवलज्ञान है? अभव्य भी केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है? योग्यता और शक्ति में अन्तर। नयों द्वारा द्रव्य और पर्याय को समझें। महत्ता किससे बनती है? द्रव्य दृष्टी से या पर्याय दृष्टी से।
मति-श्रुता-वधि-मनःपर्यय-केवलानाम्॥8.6॥
02nd, May 2024
Anita Jain
Jabalpur
WINNER-1
Manjula Jain
Gwalior M.P
WINNER-2
Kusum Jain
Faridabad
WINNER-3
किसी के मन में बैठी हुई बात या विचार को दूर से भी जानने की क्षमता को प्रकट होने से क्या रोकता है?
मति ज्ञानावरण कर्म
श्रुत ज्ञानावरण कर्म
अवधि ज्ञानावरण कर्म
मनः पर्यय ज्ञानावरण कर्म*
हमने जाना कि पाँच प्रकार के आवरण पाँच प्रकार के ज्ञानों को आवरित करते हैं
मतिज्ञान और मति ज्ञानावरण; श्रुतज्ञान और श्रुत ज्ञानावरण एक दूसरे के विरोधी होते हैं
अगर कर्म का effect ज़्यादा होगा तो ज्ञान कम होगा
और ज्ञान ज़्यादा होगा तो कर्म का effect कम होगा
हमारे अन्दर आज मतिज्ञान, श्रुतज्ञान तो थोड़ा-थोड़ा होता है
लेकिन अवधि ज्ञानावरण और मनःपर्यय ज्ञानावरण के कारण प्रत्यक्ष आत्मा से
सभी पुद्गल पदार्थों को देखने वाला अवधिज्ञान
और किसी के मन की बात जानने की क्षमता वाला मनःपर्यय ज्ञान
पूर्णतः आवरित है
केवलज्ञान भी पूर्ण आवरित है
इसी कारण प्रत्यक्ष आत्मा से कुछ भी बात नहीं होती
बस इन्द्रियों से काम चल रहा है
इसलिए मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के क्षायोपशमिक आवरण तो हमारी अनुभूति में आते हैं
लेकिन अवधि ज्ञानावरण आदि हमें अनुभूति में भी नहीं आते
इन आवरणों के कारण हमें पता ही नहीं होता कि
हमारे अन्दर कितना बड़ा खजाना पड़ा हुआ है?
मतिज्ञान ज्ञानावरण, श्रुतज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से ही
इन आवरित चीजों और उनके आवरणों को जान पाते हैं
हमने जाना कि पाॅंचों ही प्रकार के आवरण हर जीव में होते हैं
यहाँ तक एकेन्द्रिय में भी
और भव्य और अभव्य जीवों में भी
भव्य जीव में सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की, मोक्ष जाने की योग्यता होती है
और अभव्य जीव में यह योग्यता नहीं होती
हम जानते हैं अभव्य जीव को कभी केवलज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान नहीं होगा
लेकिन उसके इन कर्मों के आवरण तो होते ही हैं
जिसका मतलब है कि इन आवरण के पीछे ज्ञान भी है
बिना केवलज्ञान के केवलज्ञानावरण का क्या प्रयोजन?
यानि केवलज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान अभव्य जीव में भी होता है
यह शक्ति रूप होता है अभिव्यक्ति रूप नहीं
यानि उसके अन्दर वैसा potential है,
लेकिन कभी appearance नहीं होगा
इसका आवरण इतना solid, dense, सशक्त होता है कि
अभव्य जीव इसको कभी भी हटाने की योग्यता नहीं रखता
अभव्य जीव के अन्दर केवलज्ञान होता है
लेकिन उसको कभी केवलज्ञान नहीं हो सकता
यह confusing बातें हैं
मुनि श्री ने समझाया कि शक्ति रूप केवलज्ञान
जो आवरण के कारण से कभी प्रकट नहीं होता है
को समझने के लिए हमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों का आलम्बन लेना होगा
द्रव्यार्थिक नय द्रव्य के स्वभाव, उसकी शक्ति को बताता है
पर्यायार्थिक नय पर्याय और पर्याय की शक्ति को बताता है
पर्याय में उसके अन्दर परिणमन स्वभाव हो जाता है
बिना परिणमन के वह केवल द्रव्य ही रहता है
जैसे जो पानी में पकी दाल की पर्याय बदल जाती है
लेकिन ठर्रा मूंग परिवर्तित नहीं होती, वह दाल होते हुए भी खायी नहीं जाती
इसी प्रकार पर्यायार्थिक नय से केवलज्ञान भी एक पर्याय है, परिणति है
जो प्रकट होनी चाहिए
लेकिन अभव्य जीव में यह प्रकट नहीं होती
अभव्य जीव में द्रव्यार्थिक नय से केवलज्ञान कहा जाएगा,
पर्यायार्थिक नय से केवलज्ञान कभी नहीं होगा
हमने जाना कि द्रव्य की शक्ति और पर्याय की शक्ति दो अलग-अलग चीजें हैं
द्रव्यार्थिक नय से द्रव्य की निहित शक्ति
तब तक किसी काम की नहीं जब तक उसकी पर्याय प्रकट न हो
पर्याय के प्रकट होने से द्रव्य की महत्ता बनती है
केवलज्ञान, अरिहन्त दशा की पर्याय प्रकट होने से जीव द्रव्य पूजित हो जाता है
मुनि श्री ने समझाया कि द्रव्य दृष्टि रखने वालों ने
आज पर्याय दृष्टि को ओझल कर दिया है
और एकान्त मिथ्यादृष्टि हो गए हैं
सभी जीव द्रव्यों का ज्ञायक स्वभाव है
लेकिन उसका प्रयोजन पर्याय में उसके प्रकट होने से है
भव्य में यह पर्याय प्रकट होती है
सम्यग्दर्शन की पर्याय आने से उसकी योग्यता बढ़ती है