श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 24
सूत्र - 07
सूत्र - 07
’स्त्यानगृद्धि’ का उदाहरण। खतरे में डालने वाली निद्रा का कोई इलाज नहीं है। साता होगी तो निद्रा काम करेगी। निद्रा का उदय। निद्रा का उदय ध्यान में हमेशा बाधक है।
चक्षु-रचक्षु-रवधि-केवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला प्रचलाप्रचलास्त्यान -गृद्धयश्च॥8.7॥
13th, May 2024
Sheela Jain
Mzn
WINNER-1
रितु जैन
बिजनौर यू पी
WINNER-2
Vaishali Babanrao Ambekar
Doangoan
WINNER-3
निम्न में से प्रचला-प्रचला का उदय किस जीव में होगा?
सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव में
भोग-भूमि के मनुष्य में
भोग-भूमि के तिर्यंच में
कर्म-भूमि के तिर्यंच में*
हमने जाना कि सबसे ज्यादा खतरनाक निद्रा “स्त्यानगृद्धि” है
इसमें सोते-सोते ही व्यक्ति एक जगह से दूसरी जगह जाकर
नदी आदि तैरना, cross करना
murder जैसे बड़े-बड़े रौद्र काम करके वापस आ सकता है
लेकिन उसे पता नहीं होता कि क्या हुआ?
उसके कपड़े गीले कैसे हो गए? आदि
video कैमरे से उसके वहाँ जाने का पता चलता है
ऐसी घटनाएँ विदेशों में भी हुई हैं
और research के बाद वैज्ञानिकों ने भी इन्हें नींद में होने वाला कार्य माना है
स्त्यानगृद्धि कर्म के उदय से आयी रौद्र कर्म करने की सामर्थ्य से
व्यक्ति अपने लिए और दूसरों के लिए खतरा बन सकता है
प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि का किसी doctor के पास कोई इलाज नहीं है
तीव्र कर्म उदय में वे सब मूकदर्शक बने रहते हैं
वे नींद न आने पर
सिर्फ बेहोशी की, नींद की दवाई दे सकते हैं
बेहोशी से जगाने की कोई दवाई उनके पास नहीं है
coma से आदमी छह-छह साल तक नहीं निकलता
कर्म उदय हल्का होने पर ही उसके अन्दर चेतना और शरीर में activity आती है
हम जानते हैं कि बिना कारण कोई कार्य नहीं होता
हम ज्ञानावरणादि कर्मों को देख तो नहीं सकते
लेकिन उनके कार्यों को देखकर
अनुमान ज्ञान से
हमें विश्वास से उनके अस्तित्व को ज्यों का त्यों स्वीकार करना चाहिए
निद्राओं का इस तरह का वैज्ञानिक विभाजन हमें कहीं नहीं मिलता
विज्ञान तो मात्र sleep और deep-sleep तक ही जानता है
हमने जाना कि यूँ तो सभी निद्राएँ पाप कर्म के उदय की प्रकृतियाँ हैं
परन्तु निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि विशेष रूप से अत्यन्त अशुभ मानी जाती हैं
निद्रा और प्रचला दोनों हल्की होती हैं
निद्रा के उदय के साथ साता वेदनीय का उदय भी होता है, तब व्यक्ति सोता है
क्योंकि निद्रा असाता में काम नहीं करती
इसलिये दुःख, पीड़ा, चिन्ता आदि में निद्रा नहीं आती
साता वेदनीय कर्म के उदय से इन्द्रियों को एक शिथिलता, relaxation मिलता है
यह सुख आत्मा का संवेदन न होने की अपेक्षा से पाप है
इनमें किसी भी तरीके से अपनी चेष्टायें control करने का उपाय नहीं होता
इस तरह निद्रा पाप और पुण्य दोनों का मिला-जुला परिणाम है
सिद्धांततः इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने से पहले निद्रा का उदय नहीं होता
निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि का उदय
भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यंचों में नहीं होता
कर्मभूमि के जीवों में होता है
इनके उदय में आहारक, वैक्रियक शरीर भी नहीं बन सकते
इसलिए आहारक या वैक्रियक ऋद्धि के उदय से पूर्व भी इनका उदय नहीं होता
इनका उदय छठवें गुणस्थान तक ही होता है
सातवें गुणस्थान में ये तीनों उदय व्युच्छित्ति को प्राप्त हो जाती हैं
सातवें आदि आगे के गुणस्थानों में निद्रा एवं प्रचला का ही उदय होता है
लेकिन अधिक विशुद्धि के कारण सोने रूप कार्य दिखाई नहीं देता
निद्रा जीतने के बाद ही ध्यान शुरू होता है
इसको जीतने से अन्दर जागृति, ध्यान की शक्ति बढ़ती है
जिससे अष्टम आदि गुणस्थानों में निद्रा और प्रचला का उदय होते हुए भी,
वो ध्यान से दबी रहती है
और ध्यान में बाधक नहीं होती
निद्रा और ध्यान एक दूसरे के विरोधी हैं
इसलिये ध्यान में बैठने की कोशिश करते ही निद्रा आ धमकती है
ध्यान लगने पर निद्रा के अभाव में
भीतर से एक अच्छी जागृति, सुखद अनुभव,
निरालस्य और स्वास्थ्य भाव की अनुभूति होती है
जँभाई, उबासी आना भी निद्रा का प्रतीक है
चूँकि निद्राओं के उदय में चेतना अस्त हो जाती है
इसलिये यह पाप कर्म की प्रकृतियाँ ही हैं
जो इन्हें जीत लेते हैं
वे उस पाप से बचकर ध्यान आदि शुभ कार्यों में लग पाते हैं
और जिन्हें निद्रा ज्यादा आती है उनका किसी काम में मन नहीं लगता
उन्हें उपदेश, स्वाध्याय आदि सभी धर्म कार्यों में आलस्य आता है
हमने जाना कि दर्शनावरणी कर्मों के पाँच भेद निद्रा रूप हैं और चार भेद दर्शनावरणी कर्म रूप