श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 02
सूत्र - 01
सूत्र - 01
148 प्रकृतियों में से मात्र 7 कर्मों का क्षय यहाँ सम्भव है। नौवें गुणस्थान में 36 कर्म प्रकृतियों का क्षय। 13 नामकर्म एवं 3 दर्शनमोह की कर्म प्रकृतियों का क्षय एक साथ होता है कर्म प्रकृतियों का विश्लेषण। कर्म क्षय का दूसरा पड़ाव। मोहनीय कर्म प्रकृतियों के क्षय का क्रम। नौवें गुणस्थान की 36 कर्म प्रकृतियाँ। गणना की पुनरावृत्ति। 12वें गुणस्थान की व्यवस्था। कर्मों की 63 प्रकृतियाँ। पुरुषार्थ से ही कर्मों का क्षय सम्भव है । अन्तरंग प्रक्रिया होने पर गुणस्थान उद्घाटित होता है। 8वें और 11वें गुणस्थान में किसी कर्म प्रकृति का क्षय नहीं । शुक्ल ध्यान की अग्नि से ही श्रेणी में कर्मों का क्षय ।
मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम्॥10.1॥
22, Apr 2025
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प्रचला का नाश कौनसे गुणस्थान में होता है?
आठवें गुणस्थान में
नौवें गुणस्थान में
ग्यारहवें गुणस्थान में
बारहवें गुणस्थान में *
कर्मों के क्षय के प्रकरण में आज हमने जाना-
क्षय का मतलब होता है कर्म के बीज को ही जला देना
जिससे वह कर्म आत्मा में कभी दोबारा नहीं आए।
मोक्षमार्ग में सबसे पहले मोहनीय की सात प्रकृतियों का क्षय होकर क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है।
यह चौथे, पाँचवें, छठवें या सातवें गुणस्थान में हो सकता है।
फिर सातवें गुणस्थान में विशुद्धि बढ़ने से,
श्रेणी के योग्य परिणाम करने से, अधःकरण परिणाम शुरू होते हैं।
क्षपक श्रेणी चढ़ते हुए अपूर्वकरण परिणाम होते हैं
जिनसे विशुद्धि और बढ़ती है और पाप कर्म का अनुभाग घिसता चला जाता है।
तब नौवें गुणस्थान में जीव नौ पड़ावों में छत्तीस कर्मों का क्षय करता है।
पहले पड़ाव में
नामकर्म की तेरह-
नरक गति,
नरक गत्यानुपूर्वी,
देव गति,
देव गत्यानुपूर्वी,
आतप,
उद्योत,
स्थावर,
सूक्ष्म,
साधारण,
एक-इन्द्रिय जाति,
दो-इन्द्रिय जाति,
तीन-इन्द्रिय जाति और
चार-इन्द्रिय जाति;
और दर्शनावरणीय की तीन- निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि
इन सोलह प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है।
दूसरे पड़ाव में अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण,
इन आठ कर्म प्रकृतियों का एक साथ नाश करता है।
उसके बाद नोकषायों के क्रम में
तीसरे पड़ाव में नपुंसक वेद,
और चौथे में स्त्री वेद का नाश करता है।
पाँचवें में हास्य आदि छह नोकषायों का क्षय करने के लिए उन्हें पुरुष वेद में डालेगा।
छठे में पुरुष वेद का क्षय करने के लिए उसे संज्वलन क्रोध में डालेगा।
सातवें में संज्वलन क्रोध को मान में,
आठवें में संज्वलन मान को माया में,
और नौवें में संज्वलन माया को संज्वलन लोभ में डालेगा।
यह ‘आनुपूर्वी संक्रमण’ कहलाता है।
जिसके माध्यम से इनका क्रम-क्रम से नाश करता है।
दसवें गुणस्थान में बचे हुए सूक्ष्म लोभ का क्षय होता है।
फिर बारहवें में दो भागों में सोलह प्रकृतियों का क्षय होता है।
second last समय में निद्रा और प्रचला इन दो दर्शनावरणीय प्रकृतियों का
और last समय में
पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय, और दर्शनावरणीय के बचे हुए चार - इन चौदह प्रकृतियों का क्षय होता है।
इस प्रकार चौथे से सातवें गुणस्थान तक में 7
नौवें में 36,
दसवें में 1,
बारहवें में 16,
ये 60 प्रकृतियों का क्षय करना होता है।
चरम शरीरी के लिए नरक आयु, तिर्यंच आयु और देव आयु का अस्तित्व ही नहीं होता
इनका नाश खुद हो जाता है, करना नहीं पड़ता।
इस प्रकार त्रेसठ प्रकृतियों के क्षय से केवलज्ञान होता है।
प्रकृतियों का क्षय बहुत efforts से होता है,
without effort तो मात्र तीन आयु नष्ट होती हैं।
जन्मों-जन्मों तक पुरुषार्थ करने के बाद केवलज्ञान होता है।
इसलिए सिर्फ काललब्धि के इंतज़ार में बैठे नहीं रहना चाहिए,
पुरुषार्थ करना चाहिए।
बारहवें गुणस्थान के चरम समय में कर्मों का क्षय करते ही
उस आत्मा के अन्दर केवलज्ञान का साम्राज्य प्रकट हो जाएगा।
और उसका तेरहवाँ गुणस्थान हो जाएगा।
हमने जाना कि गुणस्थान में पहुँचने से केवलज्ञान नहीं होता
केवलज्ञान होने पर तेरहवां गुणस्थान आता है।
गुणस्थान कोई actual सीढ़ियाँ नहीं हैं
कि तेरहवीं सीढ़ी पर पहुँचे तो केवलज्ञान हो जाएगा।
श्रेणी का मतलब भी सीढ़ियाँ नहीं हैं
कि उपशम श्रेणी पर चढ़े और गिर पड़े जैसे मुँह टूट गया हो।
यह सिर्फ समझाने का तरीका होता है।
श्रेणी मतलब आगे-आगे बढ़ते चले जाना।
बस एक श्रेणी पर बढ़कर लौटना पड़ता है और एक से नहीं।
वर्तमान में किसी भी कर्म प्रकृति का क्षय नहीं हो सकता
सात प्रकृतियों के अलावा सबका क्षय क्षपक श्रेणी में होता है।
उसमें भी बस नौवें, दसवें और बारहवें गुणस्थान में।
आठवें और ग्यारहवें में किसी कर्म का क्षय नहीं होता।
क्षय सिर्फ शुक्ल ध्यान की तीव्र अग्नि से होता है।
केवल दर्शनमोहनीय का क्षय ही धर्म ध्यान से होता है।