श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 34
सूत्र - 37,38
सूत्र - 37,38
जीवन और मरण की आशंसा। अब मेरे और भगवान के बीच में कोई तीसरा नहीं आएगा: विनोबा भावे। लाइलाज बीमारी में सल्लेखना लेना और राहत मिलने पर क्या करें ?मरण आशंसा। क्षपक के भाव। मित्रानुराग। अनुराग कैसा? सुखानुबंध। निदान। दान का प्रकरण।
जीवित-मरणाशंसामित्रानुराग-सुखानुबन्धनिदानानि ॥7.37॥
अनुग्रहार्थं स्वस्याति सर्गो दानम् ॥7.38॥
05th, Feb 2024
Prerna Singhai
Bhopal
WINNER-1
राजेश कुमार जैन
अलवर
WINNER-2
Nitu Jain
Babina
WINNER-3
सबसे उत्कृष्ट कौन सी चिंता है?
मित्रों की चिंता
आत्मा की चिंता*
सुख की चिंता
आगामी भोगों की चिंता
सूत्र सैंतीस जीवित-मरणाशंसामित्रानुराग-सुखानुबन्धनिदानानि में हमने सल्लेखना के पाँच अतिचार जाने
पहले अतिचार जीवित आशंसा में ऐसे भाव आते हैं कि
हम अभी थोड़ा और जी लें
कुछ pending काम और पूरे कर दें
हमने जाना कि ख्याति, पूजा, लाभ से दूर साधक ही सल्लेखना ले पाते हैं
क्योंकि ख्याति-प्राप्त साधकों की सल्लेखना में अन्य लोग भी बाधक बन सकते हैं
जैसे भूदान आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे, जो जैन नहीं थे, ने सल्लेखना धारण की थी
इनको इंदिरा गांधी ने आकर सल्लेखना न लेने की सलाह दी थी
तब उन्होंने अपने और भगवान के बीच में किसी तीसरे के आने से मना कर दिया
और उनके द्वारा पहले से घोषित तिथि भगवान महावीर के निर्वाण दिवस पर ही उनकी समाधि पूर्ण हुई।
सल्लेखना साधक का self decision होता है
और वह life को थोड़ा और prolong करने के भाव को
या दूसरों के interference को महत्व नहीं देता
शास्त्रों के अनुसार निष्प्रतिकार रोग में, जिनकी कोई चिकित्सा न हो,
सल्लेखना लेना ही उचित है
परन्तु कभी-कभी समाधि के कारण
खान-पान का त्याग आदि होने से,
मानसिकता अच्छी होने से
tumor जैसे रोगों की भी recovery होने लग जाती है
ऐसी स्थिति में भी जीवित आशंसा से दूर होकर सल्लेखना को पूरा करना चाहिए
सल्लेखना के दूसरे अतिचार मरण आशंसा में
कष्ट आदि अधिक होने पर साधक के अंदर जल्दी मरने की इच्छा होती है
सल्लेखना के समय न जीने की और न मरने की इच्छा होनी चाहिए
अपितु ये भाव होने चाहिए कि आयु का अंतिम समय कषायों की मंदता, शांति और जागृति के साथ गुजरे
सल्लेखना के तीसरे अतिचार मित्रानुराग में
बचपन के दोस्तों से अनुराग, मिलने की इच्छा जाग्रत होती है
आचार्य कहते हैं कि अब आपका मित्र आपकी आत्मा और धर्म है
अन्य मित्र रागादि बढ़ाएँगे और चित्त में विकल्प-विक्षेप पैदा करेंगे
यदि मित्रादि मिलने भी आएं
तो भी साधक को उनसे मिलने का विकल्प नहीं करना चाहिए
साधक की परिचर्या में लगे लोग, सल्लेखना बिगाड़ने वाले, किसी भी राग और मोह भाव से उसकी रक्षा करते हैं
मुनि श्री ने समझाया कि
‘उत्तमा आत्मचिंता स्यात्, देह चिंता च मध्यमा’
‘अधमा कामचिंतास्यात्, परचिंताऽधमाधमा’
अर्थात् सबसे उत्तम चिंता आत्मा की और मध्यम देह की है
अपनी अन्य इच्छाओं की और दूसरे की चिंता lowest category में आती हैं
इसलिए सल्लेखना में मित्रानुराग नहीं होना चाहिए
चौथे अतिचार सुखानुबंध में
पहले के सुख के अनुबंध की याद आती है
उसे वर्तमान के दुःख से connect करके देखते हैं
सल्लेखना में साधक के शरीर का भराव खाली होने से
हड्डी के ऊपर pressure पड़ने से skin आदि छिल जाती है
ऐसे पीड़ा में पहले के शारीरिक सुख आदि याद करने से सल्लेखना निर्दोष नहीं होगी
यहाँ पुरानी conditions नहीं चलती
यदि सल्लेखना करते समय भविष्य के भोग आकांक्षा का भाव आता है
जैसे राजा, विद्याधर, स्वर्ग का इंद्र या चक्रवर्ती बनना
या विद्याओं, देवियों की सिद्धि होना
तो यह अंतिम निदान अतिचार होता है
मुनि श्री ने बताया कि इस सूत्र को पढ़ कर ही दोष रहित सल्लेखना धारण की जाती है
अंतिम प्रकरण - दान के प्रकरण में हमने जाना कि
व्रतों को धारण करके, स्वयं पात्र बना, व्रती श्रावक दान की क्रिया अवश्य करता है
इससे पुण्य का आस्रव, पाप का संवर और निर्जरा होती है
सूत्र अड़तीस “अनुग्रहार्थं स्वस्याति सर्गो दानम्” में आचार्य उमास्वामी महाराज ने दान की definition दी है कि
जो हम दान करते हैं, वह अनुग्रह मतलब उपकार या भला करने के लिए हो