श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 14
सूत्र -12
सूत्र -12
पुण्य बंध अलग-अलग भावों से, अलग-अलग जीवों के आश्रय से। जैसा object होगा वैसा पुण्य मिलेगा। विशेष पुण्य और सामान्य पुण्य। दान - स्व का और पर का भी अनुग्रह। सरागसंयम - पुण्य आस्रव का कारण। अकाम निर्जरा - अलग quality का पुण्य आस्रव।
भूतव्रत्यनु-कम्पा-दान-सराग संयमादियोग:क्षान्ति:शौच-मिति सद्वेद्यस्य।।6.12।।
23th Aug, 2023
श्रीमती गुणमाला जैन
भोपाल मध्य प्रदेश
WINNER-1
Manjali Jain
Karanjalad
WINNER-2
WINNER-3
स्व और पर के अनुग्रह के लिए स्व द्रव्य को पर के उपकार की अपेक्षा से देने को क्या कहते हैं?
भूत
अनुकम्पा
दान*
संयम
हमने जाना पुण्य एक तरीके का नहीं होता
हम जिस तरह के भावों से और व्यक्ति के आश्रय से पुण्य बांधते हैं
पुण्य आस्रव भी उसी quality का होता है
object अगर highest quality का है
तो पुण्य की quality भी highest होगी
भूत दया से विशिष्ट पुण्य व्रती दया से आता है
इनमें सामान्य और विशेष का अन्तर है
विशिष्ट पुण्य में सामान्य गर्भित हो जाता है
सामान्य में विशिष्ट गर्भित नहीं होता
सामान्यतः हम जिस तरह से सहायता करते हैं
हमको उतना ही फल मिलता है
जैसे रोगी की सहायता करने से, आपको रोग न होना
लेकिन व्रती के लिए कुछ करने से इनमें विशिष्टता आ जाती है
जैन लोग इस difference को न समझकर भटकते हैं
सोचते हैं हमेशा व्रतियों का ही उपकार क्यों करना?
सामान्य लोग के लिए क्यों नहीं?
जैन धर्म में किसी के लिए अनुकम्पा के लिए मना नहीं है
लेकिन हमें ज्ञान होना चाहिए कि भूतों और व्रतियों के प्रति अनुकम्पा में पुण्य की quality अलग-अलग है
और हमने महत्व किसे देना है?
अनाथालय में, गरीब को दान देने के लिए मना नहीं है
उससे भी पुण्य होता है
लेकिन जो सहायता नहीं मांग रहा है ऐसे समर्थ, बलवान व्यक्ति की सहायता
करने के पुण्य के कारण से आप कभी असमर्थ नहीं होंगे
सामान्यतः लंगड़े को पैर लगाने पर
आपके कर्मों के कारण आपके पैर या तो टूटेंगे नहीं या टूटने पर ठीक हो जाएँगे
accident होते-होते बच जाएँगे या जल्दी ठीक हो जाएँगे
लेकिन विशेष पुण्य से ऐसी घटना ही नहीं घटती
तीसरा कारण दान है
इसमें स्व-वस्तु, स्व-धन, स्व-द्रव्य दूसरे के लिए दान करते हैं
इससे स्व और पर दोनों का उपकार होता है
आचार्य कहते हैं कि स्व-उपकार तो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के माध्यम से होगा
इसलिए जो दान हमारे अन्दर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र के भाव उत्पन्न करे
उन्हें दृढ़ करे,
वही दान की श्रेणी में आता है
जैसे सम्यग्ज्ञानी, सम्यग्चारित्र के पालक
या सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान बढ़ाने वाली चीजों
के लिए किया गया donation
इसलिए जिनालय, जिनवाणी, जिनश्रुत, जिन गुरु, को ही दान देने के लिए कहा जाता है
पुण्य आस्रव का चौथा कारण सरागसंयम है
इसमें इन्द्रिय और प्राणी संयम का पालन होता हैं
लेकिन राग का अभाव नहीं हो पाता
यह प्रवृत्ति छठवें, सातवें गुणस्थान तक संभव है
और इसमें पुण्य का बंध निरन्तर होता है
दसवें गुणस्थान में राग के अभाव में संयम को वीतराग संयम कहते हैं
सरागसंयम में भगवान की वंदना करने में, उपदेश करने में-सुनने में, ग्रंथ पढ़ाने में-लिखने में आदि सभी क्रियाओं में राग जुड़ा होता है
भगवान से राग के कारण उनकी वंदना करते हैं
जिनेन्द्र वाणी के राग के कारण उसे श्रावकों को सुनाते हैं
ताकि उन्हें भी जिनवाणी से राग हो जाए
उन्हें श्रावकों से राग नहीं होता
जीव से राग के कारण वे देख कर चलते हैं ताकि उनका घात न हो
यह सरागता है और संयम भी है
सूत्र में आदि शब्द से यहाँ महाव्रती रूप पूर्ण सराग संयम ही नहीं
देश संयम या संयमासंयम भी लेना है
अणुव्रती, श्रावक के मूलगुणों आदि नियमों के पालक इसी में आते हैं
यहाँ तक अकाम निर्जरा भी इसमें आती है
मगर उसके पुण्य की quality अलग है
अकाम निर्जरा में व्यक्ति पराधीनता, रोगादि के कारण भोग-उपभोग की सामग्री से दूर हो जाता है
जैसे जेल में बंद कैदी के लिए भी पुण्य का आस्रव होता है
उसे संतोष करना चाहिए कि हम ये सब अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं