श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 15
सूत्र - 6
सूत्र - 6
औदयिक भाव किसे कहते हैं? गति नाम का औदयिक भाव l जीव विपाकी कर्म और पुद्गल विपाकी कर्म क्या हैं? कषाय औदयिक भाव l कषाय का मतलब? औदयिक भाव बन्ध के कारण क्यों हैं? द्रव्य लिंग और भाव लिंग l छह नोकषाय हर एक अपने अपने कर्म हैं l नोकषाय किसे कहते हैं? कषायों के ४ मुख्य भेद हैं और सोलह कषाय इसी में अन्तर्भूत हो जाती हैं l मिथ्यादर्शन नाम का औदयिक भाव l
गति-कषाय-लिङ्ग-मिथ्यादर्शना-ज्ञाना-संयता-सिद्ध-लेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्ये-कैकैकैक-षड्भेदाः ।l६।l
Asha
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फिरोजाबाद उत्तर प्रदेश
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कर्म के कारण जो भाव जीव में पैदा होंगे उन्हें क्या बोलेंगे?
जीव विपाकी कर्म *
पुद्गल विपाकी कर्म
शरीर नाम कर्म
गति नाम कर्म
आज हमने सूत्र 6 में जीव में कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाले औदयिक भावों के बारे में जाना
इनमें केवल कर्म के उदय की अपेक्षा होती है; उपशमन, क्षय और क्षयोपशमन की नहीं
जो कर्म उदय में आकर जीव में भाव पैदा करते हैं उन्हें जीव विपाकी कर्म कहते हैं जैसे गति नामकर्म, कषाय चारित्र-मोहनीय कर्म
और जो पुद्गल में यानि शरीर आदि में अपना फल देते हैं उन्हें पुद्गल विपाकी कर्म कहते हैं जैसे शरीर, अंगोपाङ्ग नामकर्म
हमने जाना कि गति औदयिक भाव में गति नाम कर्म के उदय से जीव जिस गति में होता है उसमें उस गति सम्बन्धी भाव उत्पन्न होते हैं
वह अपने को गति मय मनाता है
जैसे नरकगति में नारकीय, मनुष्य गति में मनुष्य, तिर्यंच गति में तिर्यंच और देव गति में देव
नाम कर्म के सभी जीव विपाकी औदयिक भाव गति नामकर्म में गर्भित हो जाते हैं
अन्य कर्म विपाकी औदयिक भावों का वर्णन अध्याय 8 में आएगा
कषाय कर्म के उदय से आत्मा में होने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ के भाव को कषाय औदायिक भाव कहते हैं
यह आत्मा को कसता है या दुःख देता है
और इसमें पूरी आत्मा कषायमय हो जाती है
सिद्धान्त के अनुसार औदयिक भाव बन्ध के लिए कारण है
औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव मोक्ष के कारण हैं
और पारिणामिक भाव न बन्ध का कारण हैं और न मोक्ष का
हम कषाय औदयिक भाव जैसे कुछ औदयिक भाव को तो नियंत्रित कर सकते हैं
मगर गति के कारण मनुष्यपने के भाव जैसे औदयिक भावों को नहीं
हमने जाना कि लिंग औदयिक भाव तीन प्रकार का होता है और इसे दो तरह से बताया जाता है
शरीर नाम कर्म के कारण शरीर की रचना को द्रव्य लिंग कहते हैं
स्त्री वेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद नोकषाय के उदय में जीव के अन्तरंग भाव, अभिलाषाओं को भाव लिंग कहते हैं
किसी एक वेद का उदय हर जीव में होता है
यहाँ लिंग से तात्त्पर्य भाव लिंग ही है
नोकषाय का मतलब ईषत् कषाय; यानि थोड़ी या हल्की कषाय
यह किसी निमित्त को पाकर के उत्पन्न होती है और उसके छूटने पर छूट जाती है
अन्य छह नोकषायों को भी हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा लिंग के साथ ग्रहण कर लेना चाहिए
कषाय में चार मुख्य भेद हैं क्रोध, मान, माया और लोभ
अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन के भेद से ये सोलह प्रकार के हो जाती हैं
यह कषाय औदयिक भाव में ही गर्भित हो जाते हैं
इस तरह चारित्र मोहनीय के दोनों भेद - 16 कषाय वेदनीय और 9 नोकषाय वेदनीय, कषाय और लिंग औदयिक भाव में गर्भित हो जाते हैं