श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 49
सूत्र - 23
सूत्र - 23
ततश्च निर्जरा॥8.23॥
18,July 2024
Rekha Krantikumar Adake
Sangli Maharashtra
WINNER-1
Navita Jain
Firozabad
WINNER-2
Pankaj Jain
Deori
WINNER-3
चार प्रकार की आयु क्या कहलाती है?
जीव विपाकी
क्षेत्र विपाकी
पुद्गल विपाकी
भव विपाकी*
हमने जाना कि अनुभाग बन्ध के लिए
सूत्र इक्कीस विपाकोऽनुभवः
सूत्र बाईस स यथानाम
और सूत्र तेईस ततश्च निर्जरा आते हैं
कर्म बन्ध के समय अनुभाग बन्ध होता है।
अनुभाग मतलब कर्म में फल देने की शक्ति आना।
अनुभाग बन्ध के समय पर-
हमें कर्म का फल नहीं मिलता,
कर्मफल की कोई अनुभूति नहीं होती,
हमे पता नहीं पड़ता, हमने कैसा बन्ध कर लिया।
पता हमे तब पड़ता है जब उसका विपाक होता है
जब वह उदय में आता है,
जब उसका अनुभव होता है।
कर्म अपने-अपने नाम के अनुसार अपना-अपना फल देते हैं-
जैसे ज्ञानावरण-कर्म का फल हमें
ज्ञान के आवरण के रूप में दिखता है,
यानि हमें अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान, केवलज्ञान नहीं होने देना।
दर्शनावरणी का अनुभव
दर्शन का बाधक बनने के रूप में दिखता है,
यानि सूक्ष्म पदार्थों का प्रत्यक्ष रूप से, आत्मा से,
दर्शन नहीं होने देना।
वेदनीय का अनुभव सुख और दुःख रूप में होता है।
दर्शनमोहनीय का फल
तत्त्व का श्रद्धान नहीं होना और मिथ्या बुद्धि के रूप में,
और चारित्र मोहनीय का अनुभव
कषायों के रूप में होता है।
हमने जाना-
घातिया कर्म केवल आत्मा के गुणों से सम्बन्धित हैं,
इसलिए इन्हें हम केवल अपनी श्रद्धा से जान पाते हैं।
किन्तु नाम कर्म का फलानुभव-
जैसे मनुष्य गति नामकर्म का उदय,
औदारिक शरीर नामकर्म का उदय, आदि
हर जीव को शरीर के माध्यम से होता रहता है।
अनुभव सब करते हैं, भले ही यह पता न हो कि यह कर्मफल के कारण है
इस chapter से हमें इस कर्मफल की knowledge मिलती है, जैसे-
हमारा प्रत्येक शरीर है,
हम इसे खुद व्यवस्थित कर सकते हैं
परन्तु साधारण शरीर वाले एकेन्द्रिय जीव, ऐसा नहीं कर सकते।
या उच्चगोत्र के फलानुभव से
हमारे भाव हमेशा उच्च आचरण वाले रहते हैं,
बिना समझाए ही, हम हिंसा से डरते हैं।
वहीं, निम्न कार्य में मन लगना नीच गोत्र की फलानूभूति होती है।
हमने कर्म-विपाक के चार भेद जानें-
पहले, जीव विपाकी कर्म-
जो जीव के अन्दर ही direct फल देते हैं,
जैसे ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी आदि।
इनकी फलानुभूति जीव को direct होती है।
दुसरे, पुद्गल विपाकी कर्म-
जिनका direct फल पुद्गल अर्थात् शरीर में मिलता है,
जैसे शरीर की रचना करने वाले नामकर्म।
जीव इनकी फलानुभूति indirectly करता है।
तीसरे, क्षेत्र विपाकी कर्म-
जो हमें एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में ले जाने में सहयोगी होते हैं।
इनमें गत्यानुपूर्वी कर्म आते है।
जो चार प्रकार की हैं-
नरक-गत्यानुपूर्वी
तिर्यंच-गत्यानुपूर्वी
मनुष्य-गत्यानुुपूर्वी और
देव-गत्यानुुपूर्वी।
यह तब तक फल देता है-
जब तक जीव एक शरीर को छोड़,
दूसरा शरीर धारण करने के लिए,
विग्रह गति में गमन करता है।
चौथे, भव विपाकी कर्म में चारों प्रकार की आयु आती हैं,
इनके फल के रूप में जीव को वह भव मिलता है,
हम उस भव में उत्पन्न होते हैं
आयु कर्म के फल से हम इस शरीर में अपने आप को बंधा महसूस करते हैं।
हमने जाना जो present में बन्ध चल रहा है, उसे बन्ध कहते हैं
और जो पूर्व में बन्ध चुका है उसे बद्ध कहते हैं।
जब तक वह उदय में आकर, हमें फल का अनुभव नहीं कराता,
तब तक बद्ध रहता है।
अनुुभव कराने के बाद ही, उसकी निर्जरा होती है।
यानि फल देकर, कर्म हमारी आत्मा से झड़ जाता है।
हमने निर्जरा के दो प्रकार जाने-
पहली सविपाक निर्जरा
इसमें कर्म अपना time पूरा कर,
उदय में आकर, फल देकर
आत्मा से अलग होता है।
यह हम लोगों में सैदव चलती रहती है।
दूसरी अविपाक निर्जरा-
जिसमें हम विशेष कारणों से,
समय से पहले ही कर्म को उदय में लाकर,
उसकी अनुभूति कर,
उसे आत्मा से अलग कर देते हैं।