श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 34
सूत्र - 22
सूत्र - 22
अन्तरंग के दोषों का निराकरण करने के लिए गुरु वैद्य के समान होते है। 7. छेद-छेदन। 8. परिहार - संघ से कुछ समय के लिए निष्कासन कर देना। 9. उपस्थापना।
आलोचना-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग-तपश्छेद-परिहारोप-स्थापनाः॥9.22॥
26, nov 2024
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अंतरंग के दोषों को दूर करने के लिए गुरु किसके समान होते हैं?
मुनीम के समान
विद्यालय के समान
वैद्य के समान*
न्यायविद के समान
प्रायश्चित्त के प्रकरण में हमने जाना
गुरू प्रायश्चित्त में अनशन, उनोदर, रस-परित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, विविक्त-शय्यासन, कायक्लेश
कोई भी तप दे सकते हैं।
रस-परित्याग मिलने पर साधक श्रावकों को बताते नहीं
कि हमारा रसों का त्याग है
बल्कि उन्हें जो मिलता है वह लेकर आ जाते हैं।
कायक्लेश करते हुए
धूप में या ठंडी में बाहर खड़े रहना
आदि कई प्रकार के तप प्रायश्चित्त में दिए जाते हैं।
जैसे operation theatre के बाहर कोई रिलेटिव खड़ा हो
तो चीर-फाड़ करना उसे निर्दयता लगेगी
और वह operation होने नहीं देगा
इसलिए इलाज एकान्त में होता है।
वैसे ही प्रायश्चित्त का निवेदन एकान्त में होता है।
और गुरु दोष को गुप्त रखते हैं।
इसी कारण शिष्य उन्हें सब बता पाता है,
और उसका इलाज भी अच्छे से होता है।
जैसे doctor बाहर की surgery करता है
वैसे ही गुरु अन्तरंग चिकित्सा करके
अन्तरंग से दोषों को निकालने वाले वैद्य होते हैं।
जैसे doctor, patient के अनुसार उसे dose देता है
वैसे ही गुरु-
दोष की प्रवृत्ति,
यह बार-बार दोष कर रहा है या पहली बार हुआ,
कितनी बार दोष का निवेदन किया, आदि देखकर प्रायश्चित्त देते हैं।
यदि हल्के से काम नहीं बनता तो वे प्रायश्चित्त की dose बढ़ाते हैं।
प्रायश्चित्त के सांतवें भेद छेद में
साधक की तपस्या का,
उनकी दीक्षा के समय का
छेदन किया जाता है।
शिष्य के बड़े-बड़े दोष करने पर
गुरु को अधिकार होता है कि बीस साल के दीक्षित साधु को वे
पन्द्रह साल पीछे कर दें,
यानी उनकी दीक्षा बस पाँच साल की मानी जाएगी।
यह बहुत बड़ा प्रायश्चित्त होता है,
सब लोग उन्हें बीस साल दीक्षित जानेंगे
पर वे खुद को पाँच साल दीक्षित ही बताएँगे
और पाँच साल से पहले दीक्षित सभी को बड़ा मानेंगे
कोई भी जीव दीक्षा लेते ही
एकदम से शुद्ध नहीं हो जाता,
गलतियाँ होती रहती हैं।
गुरु अपराधों के लिए प्रायश्चित्त देकर
संघ में उपस्थापना और स्थितिकरण करते रहते हैं।
इसे ही छेदोपस्थापना चरित्र कहते हैं।
गलती करने और उसे मानने में अन्तर होता है।
जो गलती करके उसे स्वीकारता है,
वही अपना अच्छा कर पाता है।
इसलिए हमें डरना नहीं चाहिए कि हमसे गलतियाॅं क्यों हो रही हैं?
अपनी गलती मानना, बहुत बड़ी निर्दोषता होती है
जो तभी सम्भव है जब हम सरल हों,
जब हमें अपना अच्छा भविष्य दिख रहा हो।
तभी हम शुद्ध होने के लिए
प्रायश्चित्त को स्वीकार करेंगे।
आठवें परिहार प्रायश्चित्त का अर्थ होता है
संघ से कुछ समय के लिए
निष्कासित कर देना,
दूर कर देना।
यह आज्ञा से संघ से दूर करने से अलग होता है।
इसमें उनसे कोई मतलब नहीं रखा जाता
न वह कुछ आज्ञा मांग सकता,
न गुरू उसे कुछ आज्ञा देते,
न उसकी बात सुनते।
अवधि पूरी होने पर यदि आचरण सही हो जाए
और वह गुरू से निवेदन करे,
तब गुरू उसके ऊपर गौर कर सकते हैं।
इस प्रकार गुरू,कई तरीकों से,
साधकों की बुद्धि सही रखते हैं।
क्योंकि साधु किसी भी प्रवृत्ति के,
कैसे भी संस्कार वाले लोग बन सकते हैं।
उन्हीं के अनुसार यह सब दण्ड होते हैं।
अन्तिम प्रायश्चित्त उपस्थापना का अर्थ होता है
परिहार के बाद उन्हें पुनः उपस्थापित कर लेना।
इसका अन्य अर्थ है कि
उसे ऐसी जगह पर स्थापित कर देना,
जहाॅं प्रतिकूलताएँ ज्यादा हो, अनुकूलताएँ कम।
जहाॅं लोग उसे ज्यादा सम्मान न दे,
जहाॅं भक्त लोग न हो।
जिसे हम काला पानी बोलते हैं।
इनके अलावा भी अनेक प्रायश्चित्त होते हैं।
हमारे लिए यही जानने योग्य है
कि प्रायश्चित्त में हमें क्या-क्या मिल सकता है।
जो भी मिले वह हमें हर्ष से स्वीकारना चाहिए।