श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 59
सूत्र -44,45
सूत्र -44,45
सभी जीवों के कर्मों की निर्जरा में अन्तर क्यों?असंख्यात गुणी निर्जरा का महत्व। सम्यग्दृष्टि जीव के कर्मों की निर्जरा। श्रावक के कर्मों की निर्जरा। प्रतिमाओं का संकल्प होने पर उनका निरतिचार पालन करने से ही कर्मों की निर्जरा होती है। विरत जीव के कर्मों की निर्जरा।
वीचारोSर्थव्यञ्जनयोग संक्रांतिः॥9.44॥
सम्यग्दृष्टिश्रावक-विरतानन्त-वियोजक- दर्शनमोह-क्षपकोप-शमकोपशान्त-मोह क्षपक-क्षीणमोह-जिना:क्रमशोऽ-संख्येय-गुण-निर्जराः॥9.45॥
10, Feb 2025
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निम्न में से कौनसा एक करण परिणाम नहीं है?
उर्ध्वकरण*
अधःकरण
अपूर्वकरण
अनिवृत्तिकर
नवम अध्याय में संवर, निर्जरा तत्त्व के वर्णन में
हम गुप्ति, समिति से लेकर चारित्र तक
और तप में विशेष रूप से ध्यान जान jiचुके हैं।
सूत्र पैंतालीस सम्यग्दृष्टिश्रावक-विरतानन्त-वियोजक- दर्शनमोह-क्षपकोप-शमकोपशान्त-मोह क्षपक-क्षीणमोह-जिना:क्रमशोऽ-संख्येय-गुण-निर्जराः में हमने जाना कि
धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान करने वाले जीवों की कर्मों की निर्जरा में अन्तर आता रहता है।
वह क्रम से दस स्थानों में अधिक-अधिक होती जाती है।
निर्जरा में असंख्यात गुणी निर्जरा का विशेष महत्व होता है
क्योंकि जब वह अधिक क्रम में होती है
तो असंख्यात संख्या में ही होती है
कभी भी अनन्त गुणी नहीं होती
सबसे पहला अविरत सम्यग्दृष्टि जीव आता है
जब मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम बार सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है
तब वह
अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण
यह तीन करण परिणाम करता है।
ये करण परिणाम विशेष अवसरों पर ही होते हैं
और इनसे कर्मों की विशेष निर्जरा होती है।
जब मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व के उन्मुख होता है
तो सातिशय मिथ्यादृष्टि कहलाता है।
जब वह सम्यग्दर्शन ग्रहण करता है
तो मिथ्यादृष्टि अवस्था की अपेक्षा उसकी निर्जरा असंख्यात गुणी होती है।
आगे वाले जीवों की निर्जरा असंख्यात गुणी
पूर्व की अपेक्षा ही कही जाती है।
जब अनादि मिथ्यादृष्टि जीव करण परिणाम करता है
तो उससे उसकी विशुद्धि बढ़ती है
और वह सबसे पहले
मिथ्यात्व भाव और अनन्तानुबन्धी कषायों को
उपशमित कर लेता है, दबा देता है।
तभी उसे उपशम सम्यग्दर्शन होता है।
उसकी असंख्यात गुणी निर्जरा इस प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय पर ही होती है
जब तक उपशम सम्यक्त्त्व के परिणाम रहते हैं।
बाद में क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि बनकर सामान्य निर्जरा चलती है
तब हर समय असंख्यात गुणी निर्जरा नहीं होती।
यानि अविरत सम्यग्दृष्टि जीव, असंख्यात गुणी निर्जरा
केवल एक अन्तर्मुहूर्त के लिए करता है
जब करण परिणाम होते हैं।
हर करण परिणाम अन्तर्मुहूर्त के लिए ही होता है,
और सब मिलाकर के भी एक अन्तर्मुहूर्त ही होता है।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व के समय होने वाली निर्जरा से
असंख्यात गुणी निर्जरा श्रावक करता है।
सिद्धान्ततया श्रावक-
व्रती सम्यग्दृष्टि कहलाता है
जो जीवन भर के लिए अणुव्रत या
बारह व्रतों को संकल्प पूर्वक ग्रहण करता है।
गृहस्थ, व्यवहार से श्रावक कहलाते हैं।
जब पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक श्रावक - ये भेद करे जाते हैं
तो वे पाक्षिक श्रावक में आते हैं।
पिछले की अपेक्षा तो
व्रती सम्यग्दृष्टि की असंख्यात गुणी निर्जरा हमेशा बनी रहती है।
पर अपने-आप में वह हर समय असंख्यात गुणी बढ़ती नहीं रहती।
विशुद्धि और संक्लेश के अनुसार,
वह असंख्यात गुणी या असंख्यात भाग हानि वाली भी हो सकती है।
केवल सम्यग्दर्शन के बल पर हमेशा असंख्यात गुणी निर्जरा नहीं होती
वह व्रतों के संकल्प से ही होती है।
अविरत सम्यग्दृष्टि श्रावक कठिन तप,सामायिक आदि करके भी
इतनी निर्जरा नहीं करता
जितना व्रती भोजन करते हुए कर लेता है।
क्योंकि वह जीवन भर के लिए संकल्पित है
दैनन्दिन कार्य करते हुए भी उसकी निर्जरा हमेशा चलती है।
इसलिए निर्जरा के इच्छुक जीव व्रतों को धारण करते हैं।
पहले प्रतिमा से लेकर ग्यारह प्रतिमा तक के
देशविरत नामक पाँचवें गुणस्थानवर्ती सभी जीव इसमें आते हैं।
आगे-आगे प्रतिमाओं के संकल्प बढ़ने पर,
उनका निरतिचार पालन करने पर
बढती हुई विशुद्धि, निर्जरा बढ़ाती है।
यह मात्र प्रतिमा लेने से नहीं हो जाता
व्रत पालन के भाव से होता है।
सकल संयमी यानि महाव्रती विरत कहलाते हैं
चाहे वे प्रमत्तविरत हों, या अप्रमतविरत।
छठवें और सातवें गुणस्थान विरतों की निर्जरा
पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक की अपेक्षा असंख्यात गुणी होती है।
महाव्रतों के कारण यह हर समय चलती है।
श्रावक बहुत बड़ी तपस्या, सामायिक करते हुए भी
इतनी निर्जरा नहीं कर सकता जितनी
विरत भोजन या, विहार करते हुए भी कर लेता है।