श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 15
सूत्र - 09
सूत्र - 09
शीत परीषह। दंशमशक परीषह। जंगल के विशेष मच्छर। नाग्नेय परीषह। अरति परीषह। स्त्री परीषह। चर्या परीषह। निषद्या परीषह। शय्या परीषह।
क्षुत्पिपासा-शीतोष्ण-दंश-मशक-नाग्न्यारति-स्त्री-चर्या-निषद्या-शय्या-क्रोध-वध-याचना-लाभ-रोग-तृणस्पर्श-मल-सत्कार-पुरस्कार - प्रज्ञाज्ञाना-दर्शनानि॥9.9॥
22, oct 2024
WINNER-1
WINNER-2
WINNER-3
डांस मच्छर आदि काटने वाले जीवजंतु कौनसा परीषह है?
दंशमशक परिषह*
अरति परिषह
चर्या परिषह
निषद्या परिषह
संवर और निर्जरा के प्रकरण में आज हमने जाना-
परीषह शारीरिक और मानसिक दोनों होते हैं
शारीरिक कष्ट जीतना
मानसिक कष्ट जीतने से सरल होता है
उसमें भेद-विज्ञान हो जाता है।
पर शारीरिक परीषह जीतने वाला,
मानसिक भी जीत लेता है।
परीषह सहते हुए
प्रारम्भ में उस पर ध्यान जाता है।
पिपासा के कारण
कण्ठ और होंठों का सूखना,
बोलने की हिम्मत नहीं रहना
अनुभव में आता है।
पर साधु कुछ पीने की,
या मुँह में कुछ डालने की भावना नहीं करते।
पिपासा की वेदना गर्मी और सर्दी - दोनों में होती है।
इसलिए हर घन्टे पानी पीने की आदत वालों के लिए
व्रत धारण करना कठिन होता है।
तीसरे शीत परीषह में साधु
ठण्ड में
ठिठुरते हुए भी
प्रसन्न भाव से,
शान्त भाव से रहते हैं।
यह नहीं सोचते कि कहाँ फस गए-
न चादर है और न कंबल।
चौथे उष्ण परीषह में वे
गर्मी की वेदना सहते हैं।
पाँचवाँ दंशमशक परीषह बरसात का परीषह है
दंशमशक यानि काटने वाले जीव-जंतु
जैसे डांस, मच्छर आदि।
इनके परीषह में साधु आकुलित नहीं होते।
वे सोचते हैं कि
यह जीव तो अज्ञानी है।
यह इसका भोजन है,
तो हम इनको, इनकी तृप्ति से दूर क्यों करें!
वे उन जीवों की विराधना का
भाव भी नहीं करते
यदि मलेरिया, डेंगू आदि रोगों के कारण
इनसे बचने का भाव आता है तो
निर्जरा में भी अन्तर आ जाता है।
परीषह सहने से शरीर की शक्तियाँ बढ़ती हैं
जैसे डेंगु आदि की antibodies बन जाती हैं
जिनसे परीषह को जीता जा सके।
अब तो मुनि संत भवन आदि कमरों में रह लेते हैं
पहले तो जंगलों में ही रहते थे
वहाँ होने वाले डांस आदि को सहना ही होता है।
बिना सहे-
आकुलता से क्लेश होता रहेगा।
और समता से सहने से सहनशक्ति बढ़ेगी।
छठा नाग्नेय परीषह सबसे बड़ा है
नग्न दिगंबर रूप में
कहीं अभिवादन
तो कहीं विरोध और गाली-गलौज भी मिलती हैं।
जिनमें यह सहन करने की हिम्मत नहीं होती
वे चारित्र मोहिनीय के तीव्र उदय में
लज्जा के कारण,
दिगंबरत्व धारण नहीं कर पाते।
मन न लगना अरति परीषह होता है।
जनसमूह से हटकर,
एकान्त में ही
सबसे अच्छा तत्त्वाभ्यास
और ध्यान होता है।
चारित्र की वृद्धि करने वाले इसी एकान्त में
यदि bore हो जायें,
मन न लगे,
आकुलता हो जाए
या नापसंद स्थान पर रहना हो जाए
तो अरति परिषह होता है।
चारित्र में मन लगाकर
मुनि इसे जीतते हैं।
स्त्रियों के हाव-भाव विलास देखकर
मन में विकार नहीं लाना
स्त्री परीषह है।
स्त्री, नाग्न आदि अन्य परीषह गाँव-शहरों में
जनसमुदाय के बीच ही होते हैं
जंगलों में नहीं।
एकान्त में अरति आदि बहुत थोड़े परीषह होते हैं
ये शहरों में अधिक होते हैं।
कंकड़-पत्थर से भरी
ऊबड़-खाबड़,
कंटीली,
विषम सड़कें,
जहाँ किलोमीटरों तक पैर रखने की जगह नहीं मिलती
उन्हें नंगे पैर विहार करते हुए,
कष्ट सहते हुए भी पार कर जाना
नौवाँ चर्या परीषह होता है।
यह चलने का परीषह है।
बैठने का निषद्या परीषह होता है
इसमें मुनि-महाराज
कष्ट होते हुए भी
एक ही आसन में
लम्बे समय तक बैठते हैं।
ग्याहरवें शय्या परीषह में साधु
लकड़ी के पाटे जैसे कठोर आसनों पर
एक ही आसन में,
यानि एक ही करवट से सोते हैं।
गर्मी में डंडाकार यानि
करवट में सीधे पैर फैला कर
और सर्दी में धनुषाकार मतलब
पैर मोड़ कर
शरीर की थकान मिटाने के लिए
निद्रा लेते हैं।
और यदि नींद नहीं आए तो
आत्मध्यान में लगते हैं।
चलने, बैठने, सोने - तीनों में ही
साधु सुख नहीं देखते।