श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 43
सूत्र - 28
सूत्र - 28
रौद्र ध्यान अर्थात् क्रूरता। रौद्र ध्यान अर्थात् जो रुला दे। संसारी प्राणी के दो ही ध्यान। ध्यान अर्थात् विचारों का जमावड़ा। धर्म्य ध्यान। शुक्ल ध्यान।
आर्त-रौद्र-धर्म्य-शुक्लानि॥9.28॥
26, dec 2024
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किस ध्यान के परिणाम होने पर व्यक्ति
पाप में प्रवृत्ति करके प्रसन्न होता है और उसका ध्यान भी करता है?
आर्त ध्यान
रौद्र ध्यान*
धर्म्य ध्यान
शुक्ल ध्यान
ध्यान के भेदों में हमने जाना
आर्त ध्यान मतलब meditation of pain यानि
बार-बार मानसिक या शारीरिक क्लेश पर ही ध्यान जाना।
कमज़ोर व्यक्ति का दुःख पर भी ध्यान बहुत देर नहीं टिकता
लेकिन वह होता बार-बार है।
उत्तम संहनन वाला एक ही बार दुःख में ध्यान टिकाकर
बहुत बड़ा पाप कमा लेगा
जो हीन संहनन वाले का बार-बार करके भी नहीं होगा।
दूसरा रौद्र ध्यान यानि meditation of cruelty होता है
रौद्र, ‘रुद्र’ शब्द से बना है।
रुद्र मतलब- बहुत क्रूर, cruel।
slaughter house में जानवरों को मारना भी cruelty है
और भावात्मक रूप से एक दूसरे को हानि पहुँचाना भी cruelty है ।
दूसरों को दुःख देकर, परेशान करके, हिंसा करके, झूठ बोलकर, पाँच पाप करके प्रसन्न होना,
किसी को फंसाकर, नुकसान पहुँचा कर, उसकी complaint करके खुश होना
कि उसे पता भी नहीं मैंने कैसे उसका काम बिगाड़ दिया
यह सब रौद्र ध्यान में होता है।
रौद्र का दूसरा अर्थ रुदन भी होता है।
किसी को व्यापार में बहुत बड़ी हानि करा देना,
दुकान जला देना,
किसी को मार देना आदि काम करना
जिससे सामने वाला रोता ही रह जाए
यह भी रौद्र ध्यान होता है।
हमारे अन्दर यही दोनों ध्यान
continuous, without break, हमेशा चलते रहते हैं।
इन्हें रोकने वाला कोई नहीं है।
जब तक हम धर्म ध्यान नहीं करते तब तक
हमारे thoughts या तो अपने दुःख पर concentrated रहते हैं
या फिर हम दूसरों के सुख से दुखी होते रहते हैं।
Thoughts को बार-बार concentrate करना ही ध्यान होता है।
जैसा ध्यान का उद्देश्य होता है,
वैसा ही उसका नाम होता है।
अपने दुःख को ही याद करते रहना
या हम कभी दुखी न हो जायें
इसी पर concentrate करना- आर्त ध्यान होता है।
ज्ञान हमेशा व्यग्र रहता है
यानि वह अनेक चीज़ों में distracted रहता है
कहीं न कहीं चिपकता ही है।
जब कहीं concentrate हो जाए तो
वही ज्ञान ध्यान बन जाता है।
ध्यान हमेशा किसी न किसी चीज के ऊपर रहता है
जैसे प्रवचन सुनते हुए भी हमारा घड़ी पर ध्यान जाना
कि घर जाना है,
भोजन बनाना है
Late न हो जायें
ठंड में हमारे हाथ थोड़े भी खुले रह जाएँ
तो हमें लगता है कि इन्हें भी ढाँक लें,
कहीं ठंड न लग जाए।
यह सब हमारा दुःख है
जिस पर हमारा ध्यान बार-बार टिकता है।
हमें दुःख न आ जाए,
यह दुःख का डर बने रहना,
दिमाग बार-बार वहीँ जाना
यह भी आर्त ध्यान होता है।
यदि आर्त ध्यान ही थोड़ा कम हो जाए, दुःख की चिन्ता न रहे
तो हमें लगता है कि हमारा अच्छा धर्म ध्यान चल रहा है।
लेकिन, जैसे आर्त और रौद्र ध्यान खुद चलते हैं
ऐसे धर्म ध्यान खुद नहीं होता
वह हमें करना पड़ता है।
अच्छी चीज पर, अच्छी मंजिल पर पहुँचने के लिए पुरुषार्थ करना होता है।
ground level पर तो सब चलते हैं
पर अच्छे level पर पहुँचना,
Plane में, अच्छी गाड़ियों में चलना,
पुरुषार्थ से होता है।
संसार से यात्रा ऊपर उठाने के लिए
धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में आना होता है।
आत्मा का धर्म से सहित हो जाना,
धर्ममय हो जाना,
धर्म्य ध्यान होता है।
शुक्ल ध्यान शुद्ध-शुची होता है
पवित्रता रूप होता है।
अपने शुद्ध गुणों का,
शुद्ध रूप परिणमन का,
शुद्ध भावों से बस अपनी आत्मा में शुद्ध ध्यान होना,
शुक्ल ध्यान होता है।