श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 60
सूत्र -45
सूत्र -45
विसंयोजना। दर्शनमोहक्षपक जीव के कर्मों की निर्जरा। उपशमकक्षपकोपशमकोप जीव के कर्मों की निर्जरा। उपशान्त मोह।
सम्यग्दृष्टिश्रावक-विरतानन्त-वियोजक- दर्शनमोह-क्षपकोप-शमकोपशान्त-मोह क्षपक-क्षीणमोह-जिना:क्रमशोऽ-संख्येय-गुण-निर्जराः॥9.45॥
11, Feb 2025
WINNER-1
WINNER-2
WINNER-3
पंचम गुणस्थान के भेद कितनी प्रतिमाओं के रूप में होते हैं?
एक
दो
पाँच
ग्यारह*
निर्जरा के स्थानों के प्रकरण में हमने जाना
अणुव्रती श्रावक और महाव्रती को जीवन भर
कर्म निर्जरा उनके गुणस्थान के अनुसार प्रति समय होती है,
जब तक उनका व्रत का संकल्प रहता है।
अन्य सभी की निर्जरा particular प्रक्रिया होते समय ही होती है।
पंचम गुणस्थान में ग्यारह प्रतिमाओं के रूप में भेद होते हुए
आगे-आगे विशुद्धि बढ़ती जाती है।
विरतों में इस तरह तो विभाजन नहीं होता।
परंतु कषाय की मन्दता, उनका अभाव,
परिषह सहने की दृढ़ता आदि के साथ
कर्मों के क्षयोपशम की स्थिति बढ़ते हुए
उनके चारित्र की विशुद्धि बढ़ती जाती है,
जिससे निर्जरा के स्थान अनेक प्रकार के हो जाते हैं।
छठवें-सातवें गुणस्थान में
सामान्य साधु, ऋद्धिधारी विरत, तीर्थंकर विरत
सामायिक चारित्र वाले ही होते हैं।
ऋद्धिधारी साधुओं की निर्जरा सामान्य साधुओं से विशिष्ट होती है।
और तीर्थंकर की विशुद्धि तो इतनी विशिष्ट होती है कि
उन्हें सामायिक चारित्र ग्रहण करने का भाव आते ही
अन्तर्मुहूर्त में ही मनःपर्यय ज्ञान हो जाता है।
वे हमेशा संक्लेश से दूर
और वर्धमान चारित्र वाले ही रहते हैं।
विरत से असंख्यात गुणी निर्जरा
अनन्त-वियोजक यानि अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करने वाले की होती है।
विसंयोजना शब्द अनन्तानुबन्धी कषाय के ही संक्रमण के लिए प्रयोग होता है।
इसमें अनन्तानुबन्धी का पूरा कर्मद्रव्य
अन्य कषाय प्रकृति के रूप में परिणमित हो जाता है।
इसके बाद पुनः उसकी संयोजना हो सकती है।
विसंयोजना कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव कर सकता है।
इसके लिए पुनः- अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण - परिणाम करने होते हैं।
ये विशिष्ट परिणाम,
उनसे होने वाली अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना
और फलस्वरुप असंख्यात गुणी कर्म-निर्जरा
यह सब एक अन्तर्मुहूर्त के लिए ही होता है।
करण परिणाम बहुत विशिष्ट और दुर्लभ होते हैं
प्रथम सम्यग्दर्शन के समय,
अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करते समय-
हर जगह ये परिणाम होते हैं।
देशविरत और विरतों की सत्ता में रहती हुई अनन्तानुबन्धी कषाय को
पूरा सत्ता से संक्रमित कर देना,
उसके द्रव्य का पूरा परिवर्तन कर देना
विसंयोजना कहलाता है।
अनन्त वियोजक से असंख्यात गुणी निर्जरा
दर्शनमोह का क्षय करने वाले क्षपक की होती है।
‘क्षपक’ अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है, जैसे-
क्षपक श्रेणी चढ़ने वाला क्षपक,
समाधि लेने वाला क्षपक,
या दर्शनमोह का क्षय करने वाला क्षपक।
दर्शनमोहनीय के क्षय से पहले
अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना आवश्यक होती है।
यहाँ पुनः तीन करण होते हैं।
उनसे दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतियों का क्षय होता है।
सम्यक्त्व प्रकृति का भी क्षय करना होता है
क्योंकि उसके उदय में जीव क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि ही रहता है।
दर्शनमोहनीय के क्षय से ही वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि बनता है।
तीनों करणों से दर्शनमोहनीय के क्षय में
केवल एक अन्तर्मुहूर्त लगता है।
उसी अन्तर्मुहूर्त में असंख्यात गुणी निर्जरा होती है।
दर्शनमोह के क्षय से
अनन्तानुबन्धी कषाय की चार और मिथ्यात्व की तीन-
इन सात प्रकृतियों के क्षय के बाद
चारित्रमोहनीय की इक्कीस प्रकृतियाँ बचती हैं।
इनका उपशमन करने वाला जीव
दर्शनमोहक्षपक से असंख्यात गुणी निर्जरा करता है।
उपशम श्रेणी पर चढ़ते समय, आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान वाला जीव
जो मोह को उपशान्त कर रहा है
वह उपशामक कहलाता है।
इसके लिए भी करण परिणाम होते हैं।
सातवें गुणस्थान में सातिशय अप्रमत भाव होता है,
जब जीव द्वितीयोपशम सम्यक्त्त्व के उन्मुख होता है
उस समय वह अधःकरण रूप परिणाम करता है।
आठवें गुणस्थान में अपूर्वकरण होने से
उसका नाम अपूर्वकरण
और नौवें में अनिवृत्तिकरण परिणाम होने से
उसका नाम अनिवृत्तिकरण होता है।
जिससे आगे दसवाँ गुणस्थान बनता है।
आगे-आगे के गुणस्थानों में निर्जरा अधिक-अधिक होती जाती है।
ग्यारहवें गुणस्थान में मोह उपशान्त हो चुका होता है
उस उपशान्त मोह की निर्जरा
उपशामकों से असंख्यात गुणी होती है।