श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 13
सूत्र - 03
सूत्र - 03
कर्म और प्रकृति बंध। बंध कर्म। पदार्थ और उसका परिणमन। स्थिति बंध। अनुभाग बंध।
प्रकृति-स्थित्यनुभव-प्रदेशास् तद्विधयः॥8.3॥
18th, April 2024
Kalpana jain
Hazaribagh
WINNER-1
Nidhi Jain
Sagar
WINNER-2
Alka Ashok Singhai
Bhopal
WINNER-3
निम्न में से कौनसा बंध का भेद नहीं है?
प्रकृति
विकृति*
स्थिति
अनुभाग
बंध के हेतु और स्वरुप के बाद
सूत्र तीन प्रकृति-स्थित्यनुभव-प्रदेशास् तद्विधयः में हमने बन्ध के चार भेद जाने
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश
बिना बन्धी हुई कर्म वर्गणा का
जब आत्मा के परिणामों के कारण,
उसके साथ संश्लेष सम्बन्ध बनता है
तो उसके कर्म योग्य पुद्गल, चार रूपों में आत्मा में बन्ध जाते हैं
पहला प्रकृति बन्ध होता है
प्रकृति अर्थात् स्वभाव
यानि उस कर्म की परिणति, आत्मा में रहकर, उसके किस गुण को बाधित करेगी?
कर्म तो एक ही रूप था
लेकिन आत्मा में बन्धते हुए वह अनेक रूप हो जाता है
जैसे ज्ञानावरण कर्म आत्मा के ज्ञान को आवरित करेगा
वेदनीय कर्म सुख-दुःख का सम्वेदन कराएगा आदि
सामान्य कर्म का इस तरह विभिन्न स्वभाव में रूपान्तरित होकर आत्मा में बन्ध जाना ही प्रकृति बन्ध है
मुनि श्री ने समझाया कि प्रकृति बन्ध बहुत सरल है
इसे समझकर ही हम आगे के बन्ध समझ पाएंगे
एक बन्ध तो दो चीजों का होता है
और एक बन्ध होता है अपने स्वभाव को नहीं छोड़ना
यानि सामान्य कर्म का,
आत्मा के अन्दर आकर
जो ज्ञानावरणादि रूप परिणमन हुआ,
उसी में रहना
उसे नहीं छोड़ना
हमने जाना कि जैसे एक वस्तु का दूसरी वस्तु के सम्पर्क में आने पर परिणमन हो जाता है
जैसे बादल का पानी सर्प के मुख में गिरकर विष बन जाता है
या दाल को पीसने से, भूँजने से, पानी डालने से उसका परिणमन हो जाता है
इसी प्रकार सामान्य कर्म वर्गणायें भी आत्मा में सम्बन्ध होते ही
अनेक प्रकार की ज्ञानावरणादि प्रकृति में परिणमन कर जाती हैं
पुद्गलों में परिणमन पुद्गलों के माध्यम से भी होता है
और आत्मा के परिणामों के सम्बन्ध होने से भी
आत्मा पहले से कर्म से सहित है
प्रकृति आत्मा में नहीं, कर्म में बन्धती है
क्योंकि यह बन्ध आत्मा के अन्दर होता है
इसलिए आत्मा का कहलाता है
अलग-अलग कषाय और योग के सम्बन्ध से,
अलग-अलग जीवों में अलग-अलग तरह का कर्मबन्ध होगा
लेकिन वह प्रकृति आदि चार भेद रूप ही होगा
और प्रकृति बन्ध में ज्ञानावरणादि आठ मूल या एक सौ अड़तालीस(148) उत्तर प्रकृतियों का ही बन्ध होगा
स्थिति बन्ध वह time duration होता है जिस समय तक
आत्मा में परिणमन किया हुआ कर्म
अपनी प्रकृति, स्वभाव को नहीं छोड़े
जैसे जब तक विष बना पानी, विष पर्याय न छोड़े
परिणमन करते ही हर कर्म की स्थिति पड़ जाती है
उसमें अपने आप time set हो जाता है
time bomb की तरह
जिससे ज्यादा time वह नहीं टिकेगा
और आत्मा से अपनी स्थिति छोड़ देगा
कर्म स्थिति बन्ध पूरा करने तक,
आत्मा के अन्दर पड़ा रहता है
उदय या निर्जरा होने पर ही उसका अभाव होता है
अपनी स्थिति के अनुसार वह कर्म कभी भी, कहीं भी उदय में आ जाता है
कर्म में फल देने की शक्ति को अनुभाग या अनुभव बन्ध कहते हैं
चाहे वो शुभ-अशुभ हो, तीव्र-मन्द हो, अच्छा-बुरा हो आदि
यही अनुभाग शक्ति हमें अनुभव करने में आती है
प्रकृति और अनुभाग अलग-अलग होते हैं
मुनि श्री ने इसे medicine के उदहारण से सरलता से समझाया
medicine की प्रकृति, content
वो किन चीजों, chemicals से, किस रूप में बनी है
यह प्रकृति बन्ध हो गया
expiry date इसका स्थिति बन्ध है
इसके पूरा होने तक tablet की प्रकृति वैसी ही बनी रहती है
इसके बाद वह काम नहीं आती
अब tablet के सेवन से जो हमें फलानुभूति होगी
वह अनुभाग बन्ध है
जैसे जुकाम दूर हो गया, उल्टी हो गई आदि
यह tablet के अन्दर फल देने की क्षमता है
ऐसी ही क्षमता कर्म के अन्दर भी है