श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 23
सूत्र - 07
सूत्र - 07
मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान। निद्रा के भेद। निद्रा-निद्रा। प्रचला। प्रचला-प्रचला। कुम्भकर्ण की नींद। ’स्त्यानगृद्धि’।
चक्षु-रचक्षु-रवधि-केवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला प्रचलाप्रचलास्त्यान -गृद्धयश्च॥8.7॥
09th, May 2024
Parnika Jain
Shahdara
WINNER-1
Anita Jain
Saharanpur
WINNER-2
Meena Jain
Jalgaon
WINNER-3
किस निद्रा में मनुष्य खर्राटे लेता है?
निद्रा में
निद्रा-निद्रा में*
प्रचला में
प्रचला-प्रचला में
हमने जाना कि पाँच प्रकार के ज्ञानों के केवल चार प्रकार के दर्शन होते हैं
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान से पहले चक्षु, अचक्षु दर्शन होते हैं
अवधिज्ञान के पूर्व अवधिदर्शन होता है
केवलदर्शन केवलज्ञान के साथ होता है
मन:पर्यय ज्ञान से पहले दर्शन नहीं होता
ईहा मतिज्ञान होता है
किसी के मन की बात जानने की इच्छा,
मतिज्ञान की परिणति के रूप में होती है
दर्शनावरणी कर्म से आत्मा की संचेतना, स्वसंवेदन लुप्त हो जाता है
और जीव पदार्थ को जानने में असमर्थ हो जाता है
आगे के पाँच दर्शनावरणी कर्म निद्रा रूप होते हैं
इसलिए आचार्य महाराज ने उन्हें अलग विभक्ति में लिखा है
इन निद्राओं में जीव जागृति पूर्वक स्वसंवेदन में नहीं रहता
मूलाचार ग्रन्थ के अनुसार 'णिद्दा जीवं अचेयणं कुणदि'
अर्थात निद्रा जीव को अचेतन कर देती है
उसके दर्शन स्वभाव को लुप्त सा कर देती है
निद्रा का पहला प्रकार है ‘निद्रा दर्शनावरणी कर्म’
यह सामान्य निद्रा है
यह शरीर की थकान मिटाने, इन्द्रियों को विश्राम देने के लिए आवश्यक होती है
इसके उदय में जीव सो भी लेता है और बहुत जल्दी जग भी लेता है
विद्यार्थियों की निद्रा श्वान निद्रा जैसे होनी चाहिए
जाग्रत और अच्छी
जगने के बाद बिल्कुल स्वस्थ महसूस करे
दूसरी निद्रा “निद्रा-निद्रा” होती है
यह बहुत गाढ़ नींद होती है
इसमें आँखों और सर पर निद्रा का भार बढ़ जाता है
जैसे आँख में पड़ी बालू और सर पर रखा पत्थर
इसके उदय में व्यक्ति कहीं भी
सर्दी-गर्मी में
पेड़ के ऊपर, ऊबड़-खाबड़ जमीन पर
चलते-चलते, खड़े-खड़े, बैठे-बैठे
खर्राटे लेने लग जाता है
खर्राटे निद्रा-निद्रा के उदय में आते हैं
इसमें उसे आस-पास का ज्ञान नहीं रहता
चेतना बिल्कुल अस्त हो जाती है
तीसरी निद्रा ‘प्रचला’ होती है
यह आत्मा को चलायमान कर देती है
बैठे-बैठे सोते हुए भी शरीर हिलने डुलने लग जाता है
जैसे अक्सर उपदेश सभाओं में लोग
थोड़ा सुन लेते हैं
थोड़ा सो लेते हैं
आँखें खोल लेते हैं
हिल-डुल लेते हैं
ये सब प्रचला में होते हैं
इसको खर्राटे के अभाव में निद्रा-निद्रा नहीं कह सकते
वह बहुत ज्यादा गहरी निद्रा में नहीं जाता
कभी जागृत हो जाता है
फिर सो जाता है
गर्दन तुरन्त झुक जाती है
मुँह से लार भी निकल सकती है
निद्रा-निद्रा और प्रचला अलग-अलग type की होती हैं
चौथी निद्रा “प्रचला-प्रचला” बहुत खतरनाक होती है
इसमें आदमी सोते हुए चलता है
उसका शरीर, गर्दन सब घूमते हैं
लेकिन उसे पता भी नहीं रहता कि वह घूम रहा है?
इसमें मुँह से लार टपकती है
यह आदमी को भूत लगने के समान ही बिल्कुल निश्चेष्ट कर देती है
उसे पता ही नहीं होता कि वह घूमते-घूमते कहाँ पहुँच गया?
इसलिए इसमें बहुत सारी घटनाएँ हो सकती हैं
यह निद्रा हल्के प्रयास से नहीं टूटती
इसे तोड़ने के लिए बड़ा पुरूषार्थ करना पड़ता है
उदय का time पूरा होने पर यह स्वयं ही टूट जाती है
और आँख खुल जाती है
कुम्भकर्ण की नींद को भी हम प्रचला-प्रचला नहीं कह सकते
क्योंकि उसके अन्दर व्यक्ति चलायमान रहता है, घूमता है
यह निद्रा-निद्रा कहलायेगी
जिसमें व्यक्ति बहुत लम्बे समय तक खर्राटे आदि लेकर सोता है
निद्रा-निद्रा फिर भी जीव को राहत देती है
प्रचला-प्रचला जीव को नुकसान पहुँचाती है
सबसे ज्यादा खतरनाक निद्रा “स्त्यानगृद्धि” है
इसमें सोते-सोते ही व्यक्ति murder जैसे बड़े-बड़े रौद्र कर्म भी कर सकता है
पर्वत लांघ सकता है
नदी cross कर सकता है आदि
लेकिन उसे पता नहीं होता
उसमें ये शक्ति सोते समय आती है
और निद्रा टूटने तक बनी रहती है
नींद टूटने पर न वह पर्वत पर चढ़ सकता है और न नदी पार कर सकता