श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 17
सूत्र - 05
सूत्र - 05
सूक्ष्मत्व-अवगाहनत्व-अव्याबाध-अगुरुलघु गुण घात रूप नहीं है। अनुजीवी गुण अरिहंत दशा से समझें। दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य ये पाँच आत्मा की अपनी शक्तियाँ हैं। अनुजीवी और प्रतिजीवी में क्या अन्तर है? सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि भाव शरीर के अभाव होने पर प्रकट होंगे। जब तक मोहनीय कर्म है तब तक इस वेदनीय में ताकत है।
पञ्च-नव-द्वयष्टा-विंशति-चतुर्द्वि-चत्वारिंशद्-द्वि-पञ्च-भेदा यथाक्रमम्॥8.5॥
25th, April 2024
Bharati Patravale
Kolhapur
WINNER-1
Rabita Jain
Indore
WINNER-2
Snigdha Nitinkumar Doshi
Pune
WINNER-3
निम्न में से किस कर्म के अभाव से आत्मा के प्रतिजीवी गुण प्रकट होंगे?
ज्ञानावरण कर्म
दर्शनावरण कर्म
वेदनीय कर्म*
मोहनीय कर्म
हमने जाना कि जीव के प्रतिजीवी गुणों का घात करने वाले अघातिया कर्मों से जीव का जीवन बाधित नहीं होता
जैसे आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म
सिद्धांतः वेदनीय को अघाति और अन्तराय को घाति कर्म माना गया है
लेकिन सूत्र में कर्मों का क्रम घातिया और अघातिया के हिसाब से नहीं है
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म जीव के अनुजीवी गुणों का घात करते हैं
लेकिन मोहनीय के साथ में रहते हुए वेदनीय कर्म भी आत्मा के अनुजीवी गुणों का घात करता है
इसलिए कथञ्चित इसे भी घाति कहते हैं
और मोहनीय के पहले रखते हैं
अघाति कर्मों के अभाव से प्राप्त, प्रतिजीवी गुणों के बिना भी जीवन चलता है
और उनके कारण से जीव में कोई विशेष गुणों की सम्पदा प्रकट नहीं होती
जैसे नाम कर्म के कारण सूक्ष्मत्व,
आयु कर्म के कारण अवगाहनत्व,
अव्याबाध और अगुरुलघु गुणों के घात होने पर भी
आत्मा के स्वाभाविक ज्ञान दर्शनात्मक चैतन्य गुणों, अनुभूतियाँ पर कोई फर्क नहीं पड़ता
वहीं ज्ञान या दर्शन का घात होने पर, जीव का अस्तित्व ही मिट जाएगा
मोहनीय कर्म के कारण जीव के निजी गुण जैसे स्वाभाविक सुख, तत्त्वज्ञान, श्रद्धान, चारित्र आदि घात को प्राप्त होते हैं
मुनि श्री ने अरिहंत दशा को ध्यान में रखकर समझाया कि
भगवान के अनुजीवी गुणों को घात करने वाले चारों कर्मों का क्षय हो जाता है
और अनन्त चतुष्टय रूप गुण प्रकट हो जाते हैं
उन्हें अघाति कर्मों का उदय होते हुए भी
केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य रूप स्व का अनुभव करने में कोई बाधा नहीं होती
हमने जाना कि सिद्धों का और अरिहन्तों का सुख समान होता है
ये सब भ्रान्ति है कि सिद्धों के अव्याबाध और अरिहंत के अनन्त सुख होता है
अनन्त सुख ही अव्याबाध सुख है
बिना blockage, सभी शक्तियाँ उद्घाटित होना ही अनन्त है
अनन्त की अनुभूति के बाद कोई भी अनुभूति उसमें फर्क नहीं डालती
सिद्धों के अव्याबाध गुण होता है
जो गोत्र या वेदनीय कर्म के अभाव में प्रकट होता है
परमार्थ-प्रकाश टीका में इसमें थोड़ा अन्तर है
ये कोई सुख नहीं
वेदनीय का अभाव है
जिससे अब उन्हें कर्म-नोकर्म के माध्यम से कोई भी बाधा नहीं होती
यह मात्र अवस्था का परिवर्तन है
शरीर का अभाव होता है लेकिन
आगम में सुख वृद्धि के विषय में कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं आता
घातिया कर्म आत्मा के वास्तविक गुणों, अनुजीवी गुणों का घात करते हैं
यह ज्ञान-दर्शन के लिए तो स्पष्ट है
मोहनीय कर्म वास्तविक सुख देने वाले स्व-ज्ञान, तत्त्वज्ञान में बाधा पहुँचाता है
मोह से जीव बिल्कुल विवेक रहित हो जाता है
अन्तराय कर्म आत्मा के अन्दर की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य शक्तियों का घात करता है
इन अनुजीवी गुणों की अपूर्णता में आत्मा निशक्त होकर,
विकलता और दुःख का अनुभव करता है
जीव को
दान करने में
लाभ प्राप्त करने में
भोग-उपभोग की सामग्रियों का अनुभव करने में
या अपने उत्साह की वृद्धि करने में
अन्तराय कर्म ही बाधा डालता है
हमने आत्मा के अनुजीवी और प्रतिजीवी गुणों के अंतर को विस्तार से समझा
अनुजीवी गुण हमारी चेतना के जीवन है
निजी संपत्ति हैं
प्राण हैं
इनके माध्यम से आत्मा का अनुभव होता है
आत्मा आश्रित होने से ये अनुजीवी हैं
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म इनका घात करते हैं
प्रतिजीवी गुण हमारे शरीर के जीवन है, चेतना के नहीं
शरीर आश्रित होने से ये प्रतिजीवी हैं
ये अघाति कर्म के अभाव में, सिद्ध अवस्था में, प्रकट होते हैं
लेकिन तब तक भी ये आत्मा के वास्तविक गुणों का घात नहीं करते
सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि गुण शरीराश्रित भाव हैं
और शरीर बनाए रखने वाले कर्म के नष्ट होने पर प्राप्त होते हैं
शरीर का अभाव होने पर आत्मा में भी वैसा ही परिणमन हो जाता है