श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 10
सूत्र - 11
सूत्र - 11
व्रतियों के लिए ये भावनाएँ भाने से व्रतों की विशुद्धि बढ़ती है ।पहली मैत्री भावना का वर्णन ।दूसरों के सुख में दुखी होना ! मैत्री भाव हमारे अंदर समानता का भाव देता है ।प्रमोद भाव का वर्णन । उदासीन मतलब तटस्थ होना ।गुणी जनों के प्रति अपने मन में प्रमोद भाव होना चाहिए ।बड़ों से jealousy नहीं आनी चाहिए । चार category के लिए चार भावनाएँ ।
मैत्रीप्रमो-दकारुण्य माध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमाना-विनयेषु।।7.11।।
05th, Dec 2023
Rita Jain
Ajmer
WINNER-1
Kaushalya Jain
Lucknow
WINNER-2
Mukesh Jain
Ashoknagar
WINNER-3
गुणाधिक के साथ में निम्न में से कौनसी भावना को जोड़ना है?
मैत्री
प्रमोद *
कारुण्य
माध्यस्थ
हिंसादि पापों की निषेधात्मक, त्याग योग्य भावनाओं को समझने के बाद हमने
सूत्र ग्यारह मैत्रीप्रमोदकारुण्य माध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमाना-विनयेषु में विधेय रूप चार भावनाओं को समझा
ये मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनायें क्रम से सत्त्व, गुणाधिक, क्लिश्यमान और अविनेय जीवों के साथ जुड़ती हैं
विनेय मतलब शिष्य - जो सीखने की कुछ इच्छा रखता हो
और अविनेय मतलब जो सीखना नहीं चाहता
और सीखने वाले, सिखाने वालों से द्वेष करता है
ये भावनाएँ भाने से व्रती का मन व्रतों की शुद्धि में लगता है
और चित्त की उलझने दूर हो जाती हैं
पहली मैत्री भावना में मन-वचन-काय से न तो दूसरे को दुःख देते हैं
और न उन्हें दुःख हो ऐसी इच्छा करते हैं
यह एक सामान्य भाव है जो समानता का भाव पैदा करता है
हमने जाना कि जहाँ comparion की tendency होती है वहाँ दुःख होना स्वाभाविक है
इसलिए व्रती को किसी से compare नहीं करना चाहिए
व्रती और व्रतों की ओर अग्रसर लोगों को मैत्री भावना का अभ्यास करना चाहिए
न किसी को दुःख देना
न उन्हें दुःखी देख कर खुश होना
और न उनके सुख को देखकर दुःखी होना
‘सत्त्व’ का अर्थ है संसार के अनेक जीव
जो कर्मों के कारण दुःख प्राप्त कर जीवन जी रहे हैं
उन सबके प्रति हमें मैत्री भाव रखना चाहिए
हमने जाना कि विषमता से ही दुःख उत्पन्न होता है
और इस विषमता को दूर करने के लिए मैत्री भाव करना अत्यंत आवश्यक है
इसके बिना बुद्धि निरंतर तुलनात्मक चलती है
हम अपने मन से उलझते हैं
और वह दूसरों को देख कर उलझता है
उसकी अपनी उलझन कुछ नहीं होती
अन्यथा धर्म बड़ा सरल और सहज होता है
यह भावना बड़ी सरल है
और मन को सामान्य बनाती है
इसकी कमी से मन में बेचैनियाँ या दुराभाव होते हैं
हमें सबके प्रति इसका भाव निरंतर लाना चाहिए
चाहे वो मित्र हो या शत्रु हो, अनुकूल हो या प्रतिकूल हो
दूसरा ‘प्रमोद भाव’ अर्थात प्रकृष्ट रूप से मोद
मोद शब्द मुद से बनता है जिसका अर्थ है कमल की तरह खिलना, प्रमुदित होना
प्रसन्नता का भाव रखना
उदास होकर नहीं बैठना
हमें negativity की ओर ले जा रहे उदासीन भाव को change करने की कोशिश करनी चाहिए
उदासीन शब्द जैन धर्म में बड़ा प्रचलित है
जिसका अर्थ है बिल्कुल neutral हो जाना
न positive होना, न negative होना
बिल्कुल तटस्थ होना
समभाव या साक्षी भाव में आना
ऐसा कहा जाता है कि हमें उदासीन होना चाहिए
भगवान भी उदासीन हैं
ये भावनाएँ मानसिक दुःखों से उबरने के लिए बहुत अच्छी हैं
हमें गुणाधिक या गुणी जनों के प्रति मन में प्रमोद भाव रखना चाहिए
प्रमुदित होना चाहिए
प्रसन्न होना कोई बुरी बात नहीं है
लेकिन बिना वजह हास्य करना बुरी बात है
क्योंकि इसमें हम व्यंग करते हैं
दूसरे की कमजोरी पर हंसते हैं
यह हास्य कषाय है
‘गुणाधिक’ का अर्थ है जो हमसे ज्यादा quality रखते हैं
किसी भी तरह से अपने से पूज्य हैं, बड़े हैं
जिनका विश्वास धर्म पर, आत्मा पर ज्यादा है
जिनका मन जिनवाणी में लगता है
विकथाओं से हटकर हमेशा धर्म कथा में लगता है
जो श्रद्धान, दर्शन, ज्ञान और चारित्र आत्मा के गुणों के विकास के लिए तत्पर हैं
इन गुणियों को देख कर हमारे अंदर प्रमोद भाव आना चाहिए
jealousy नहीं
इससे हमारे मन में उदासी नहीं आएगी, tension नहीं होगा
मानसिक कमजोरी के कारण हम गुणीजनों को देख करके उनसे ईर्ष्या करते हैं
उनकी निंदा करते हैं
जबकि उन्हें देखकर हमें कमल के पुष्प की तरह खिल जाना चाहिए
उनके समक्ष होने पर, उनको देख कर प्रसन्नता का भाव आना चाहिए