श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 04
सूत्र - 01,02
सूत्र - 01,02
केवलज्ञान और मोक्ष के बीच अन्तराल । मोक्ष के हेतु । बंध की कारण-कार्य व्यवस्था । संवर और निर्जरा: मोक्ष का माध्यम । कर्मों का सत्तानाश यानी क्षय । कर्म की 148 प्रकृतियों के क्षय से मोक्ष होता है । उपान्त समय में 72 कर्म प्रकृतियों के क्षय का विवरण । अन्त समय में 13 कर्म प्रकृतियों का क्षय ।
मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम्॥10.1॥
बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्न-कर्म-विप्रमोक्षो मोक्ष:॥10.2॥
24, Apr 2025
WINNER-1
WINNER-2
WINNER-3
कर्म की कितनी प्रकृतियों के क्षय से मोक्ष होता है?
13
63
72
148 *
सूत्र एक में हमने जाना था कि
मोह के क्षय से
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्मों के क्षय से केवलज्ञान होता है।
इसके बाद अरिहन्त भगवान कृतकृत्य हो जाते हैं,
अपने ही आनन्द में रहते हैं।
अंतःकृत केवली केवलज्ञान होते ही अन्तर्मुहूर्त में ही मोक्ष चले जाते हैं
पर तीर्थंकर केवली तुरंत मोक्ष नहीं जाते।
उन्हें केवलज्ञान के बाद समवशरण में बैठना ही होता है।
सूत्र दो बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्न-कर्म-विप्रमोक्षो मोक्ष: में हमने जाना, मोक्ष में
‘कृत्स्न’ यानी संपूर्ण रूप से
कर्म का विप्रमोक्ष मतलब मुक्ति होती है।
इसमें ‘वि’ और ‘प्र’ दो उपसर्ग लगे हैं।
यानि मोक्ष में कर्म का विशेष रूप से, प्रकृष्ट रूप से अभाव होता है,
उसका नाम मात्र भी शेष नहीं रहता।
यहाँ हमने मोक्ष के दो हेतु जाने-
बंध के हेतुओं के अभाव और निर्जरा।
अध्याय आठ में हमने बन्ध के पाँच हेतु जाने थे -
मिथ्यादर्शन,
अविरति,
प्रमाद,
कषाय
और योग।
पहले चार के अभाव से केवलज्ञान होता है
और सयोग केवली से अयोग केवली होने पर पाँचवें हेतु योग का भी अभाव हो जाता है।
अब आत्मा में बन्ध होने का कोई कारण ही नहीं बचता।
जिससे बंध का कार्य भी समाप्त हो जाता है।
हमारी आत्मा में पहले से कर्म बंधे हुए हैं।
जब तक कारण रहता है
तब तक कार्य खुद चलता रहता है।
जैसे- जब तक मिथ्यात्व कारण है तो उसके द्वारा होने वाले कर्म,
जो उससे अविनाभाव सम्बन्ध रखते हैं, उनका बंध होता रहेगा।
उसके नष्ट होने से उससे बंधने वाले कर्म भी नष्ट हो जाएँगे।
अरिहंत भगवान में घातिया कर्म का बन्ध तो होता ही नहीं,
बस अघाति वेदनीय कर्म का बन्ध होता है।
योग का अभाव होने पर उसका भी पूर्णतया अभाव हो जाता है।
यानि जब तक आत्मा के अन्दर बन्ध कराने वाले कारण हैं
तब तक बन्ध होता रहता है और उनके नष्ट होने पर कार्य स्वतः नष्ट हो जाता है।
मोक्ष का दूसरा कारण निर्जरा होती है
यानि पहले बंधे हुए कर्मों का झड़ना, छूटना।
नए बन्ध का रुकना संवर और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा
ये दोनों मोक्ष के कारण हैं।
और मोक्ष कार्य।
कर्म की पूर्ण रूप से निर्जरा होना क्षय कहलाता है।
सत्व का अभाव, यानि सत्तानाश ही क्षय कहलाता है।
कर्म में बंध, उदय, और सत्व चलते हैं।
इसमें सत्व सबसे महत्वपूर्ण है।
यदि आत्मा में उसका अस्तित्व रहा तो वह कभी भी उदय में आ सकता है,
नया बन्ध करा सकता है।
केवलज्ञान होने तक अरिहन्त भगवान तरेसठ प्रकृतियों का सत्तानाश कर चुके होते हैं।
अयोग केवली होने के द्विचरम समय में वे बहत्तर कर्म प्रकृतियों का नाश करते हैं
और चरम समय पर तेरह का।
मतलब अन्त-अन्त में सबसे ज्यादा कर्मों का सत्तानाश होता है।
बहत्तर कर्म प्रकृतियों में-
एक वेदनीय
नीच गोत्र कर्म,
अध्याय आठ सूत्र ग्यारह गतिजातिशरीरांगोपांग.. के क्रम में, नामकर्म के-
देव गति
पाँच शरीर,
तीन अंगोपांग,
एक निर्माण,
छह संस्थान,
छह संहनन,
आठ स्पर्श,
पाँच प्रशस्त रस,
पाँच अप्रशस्त रस,
दो गंध,
पाँच प्रशस्त वर्ण,
पाँच अप्रशस्त वर्ण,
देवगत्यानुपूर्वी,
अगुरुलघु,
उपघात,
परघात,
उच्छवास,
प्रशस्त विहायोगति,
अप्रशस्त विहायोगति,
प्रत्येक शरीर,
दुर्भग,
सुस्वर,
दुःस्वर,
शुभ,
अशुभ,
अपर्याप्ति,
स्थिर,
अस्थिर
अनादेय और
अयशकीर्ति।
ये second last समय में नष्ट होती हैं
और तेरह प्रकृतियों में
बचा हुआ एक वेदनीय।
यदि साता उपांत समय में नष्ट होता है तो असाता अन्त में अन्यथा इसका उल्टा,
उच्च गोत्र,
मनुष्य आयु,
मनुष्य गति,
पंचेन्द्रिय जाति,
मनुष्यगत्यानुपूर्वी,
त्रस,
बादर,
सुभग,
पर्याप्त,
आदेय,
यशःकीर्ति और
तीर्थंकर
ये अंतिम समय में नष्ट हो जाती हैं।
यानि सबसे ज्यादा पिच्यासी कर्म प्रकृतिओं का नाश अयोग केवली के द्विचरम और चरम समय में होता है।