श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 07
सूत्र - 03,04
सूत्र - 03,04
प्राकृतिक वसतिका। गुप्ति में हो समीचीनता...आत्म शुद्धि एवं कर्म निर्जरा हेतु। जैनियों की शुद्ध सात्विक तपस्या है। स्वच्छंदता से परे तपस्या। Mind को control करके ही तपस्या की जा सकती है। अनुशासन सहित हो तपस्या। समर्पण से ही मिलती सफलता। आत्मा की रक्षा गुप्ति से होगी। काय तथा वचन में स्थिरता का अभ्यास योग निग्रह की पहली सीढ़ी। साधना में निरंतरता, सफलता की कुंजी।
तपसा निर्जरा च॥9.3॥
सम्यग्योग -निग्रहो गुप्ति:॥9.4॥
09, oct 2024
Ulka surajchand
Aurangabad
WINNER-1
Kiran Doshi
Indore
WINNER-2
Kunal.Jain
Alwar
WINNER-3
सम्यक् रूप से योगों का निग्रह करना क्या कहलाता है?
समिति
चारित्र
गुप्ति*
सवंर
विशिष्ट निर्जरा के प्रकरण में हमने मुनि श्री की भावनाओं को जाना
जहाँ आज मुनि धर्मशालाओं आदि में रहते हैं
उनके निमित्त से श्रावक झाड़ू-बुहारी भी करते हैं
वहीं उनकी भावना उन पर्वत, श्मशान, गुफा, वृक्ष की कोटर आदि
बिना मालिक की प्राकृतिक निर्दोष वसतिका
में रहने की है
जहाँ किसी साफ़-सफाई की ज़रूरत ही नहीं
किसी से कोई मतलब ही नहींं
पर आजकल ऐसा संभव नहीं
अभी मूलगुणों का पालन तो होता है,
पर संहनन, काल आदि अनुकूल होने पर
उत्तर गुणों से विशिष्ट निर्जरा होगी।
सूत्र चार ‘सम्यग्योग-निग्रहो गुप्ति:’ में हमने जाना कि
‘सम्यक्’ रूप से,
‘योगों’ का
निग्रह करना गुप्ति है
यह समीचीन रूप से होता है,
मिथ्या भाव से नहींं।
अर्थात् यह आत्मा की शुद्धि और कर्म निर्जरा के लिए होता है
नाम, आदर-सत्कार आदि के लिए
गुप्ति में बैठ जाना,
गुप्ति नहीं होती।
वचन गुप्ति में पर से संपर्क नहीं रखना होता,
एकान्त में बैठ कर अपने आत्म-तत्त्व का अभ्यास करना होता है।
ये सूत्र हमारे मन के भावों पर control लगाते हैं।
गुप्ति का उद्देश्य धर्ममय होना चाहिए
अन्यथा गलत प्रयोजन से तो
बहुत लोग गुप्ति कर लेते हैं।
भगवान् के कहानुसार सही प्रयोजन से गुप्ति करना,
बड़ी चीज़ है।
अन्य दार्शनिक प्रवचनकार, motivational speakers
जीवन में न बंधने के लिए प्रेरित करते हैं
जब जो मन आये तब वो करो,
जिंदगी बांधने के लिए नहींं है,
खुले रहो,
दूसरों के अनुसार मत चलो।
हमारे पढ़े-लिखे बच्चे इन्हीं भावनाओं में बह जाते हैं।
जीवन स्वच्छंदता से जीना चाहते हैं,
बंधना नहीं चाहते,
इसलिए नियम नहीं लेते।
पर जब तक दूसरों के अनुसार नहीं जियेंगे
तब तक mind control नहीं हो सकता
ऐसे लोग कभी भी व्रत, संयम नहीं ले सकते।
कभी योगों का निग्रह नहीं कर सकते।
शुद्ध-सात्विक जैनी तपस्या बहुत बड़ी तपस्या होती है
क्योंकि यहाँ हर चीज अपने मन के अनुसार नहींं होती।
अपनी स्वतन्त्रता को छोड़,
कहे अनुसार करना कठिन होता है।
जो मन को नहींं कस सकता,
वह कभी जैन धर्म का आचरण नहीं कर सकता।
आज्ञा के अनुसार करने के लिए
हमें समर्पण करना होता है,
समर्पण यानि बिना नूँ-नच के
rules, regulations follow करना
जैसे दिन में खाना है तो,
रात में यदि भूख लगे तो उसे सहन करना,
ताकि दूसरे दिन हमें दिन में खाना याद रहे।
पढ़े-लिखे लोगोंं में, दूसरे योग आश्रम में रहने वालों में समर्पण नहींं होता
आज के बच्चे मन को कसना नहींं चाहते,
नियम नहीं लेना चाहते।
पर बिना नियम लिए
हमेशा के लिए,
हमारी मानसिकता नहींं बन पाती।
और बिना ऐसी मानसिकता बने,
मन उसी चीज में लगा रहता है।
आत्मा की रक्षा गुप्ति से ही होती है
भले ही उसमें कष्ट हो
यदि नियम लेने के बाद कभी विचलन होता है
तो वह केवल मन का होगा
और बस उसी समय के लिए।
अभ्यास करते-करते हमारा मन समर्थ हो जाएगा।
मनो गुप्ति की साधना धीरे-धीरे होती है।
पहले काय control की जाती है,
फिर वचन,
उसके बाद मन control होता है।
यह कहना गलत होगा कि
मन control नहीं हुआ तो बाहर से त्याग व्यर्थ रहा।
क्योंकि तीनों योगों में काय और वचन की स्थिरता हमारी बनी रही
तो धीरे-धीरे मन भी स्थिर हो जाएगा।
तब तक हमें काय और वचन निग्रह के तैंतीस-तैंतीस नम्बर तो मिलते रहेंगे।
गुप्ति, मुनि और श्रावक दोनों कर सकते हैं
श्रावक रात्रि-भोजन त्याग, दर्शन-पूजन,
आदि छोटे-छोटे नियमों से करता है,
और मुनि बड़े-बड़े नियमों से करते हैं।
इसी से आत्मा में पाप कर्म का बंध रूकता है
और बंधे हुए कर्मों की निर्जरा होती है
इसलिए हमें गुप्तियाँ बढ़ानी चाहिए।