श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 14
सूत्र - 13,14
सूत्र - 13,14
Mobile चलाते हुए हिंसा। अहम् प्रमाद को महसूस नहीं होने देता । बाहर से सुख पर भीतरी दुःख ।
प्रमत्तयोगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा।।7.13।।
अस-दभिधान-मनृतम् ॥7.14॥
13th, Dec 2023
Chandra Kala Jain
Jaipur
WINNER-1
Saroj Jain
Varanasi
WINNER-2
Vrushali Jain
Mumbai
WINNER-3
निम्न में से अभिधान का मतलब होता है?
जो वचन बोले जा रहे हैं *
जो अच्छा नहीं है
जो सत्य नहीं है
जो दान दिया है
हमने समझा कि हिंसा को परिभाषित करने वाला सूत्र तेरह सिद्धांत सूत्र भी है और
अध्यात्म सूत्र भी है
क्योंकि हिंसा के हेतु आत्मा के परिणामों से जुड़े हैं
अप्रमाद का भाव व्यक्त रूप से सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करने से ही आयेगा
इसलिए ‘प्रमत्तयोगात्’ हेतु सिद्धांतिक भी है
चूँकि एक से छँटवें गुणस्थान तक प्रमाद होता है
तो क्या प्रमत्त योग होने के कारण
कैसी भी प्रवृत्ति करने पर हिंसा होगी?
आचार्य कहते हैं कि यहाँ प्रमाद गुणस्थान की अपेक्षा नहीं है
अपितु कषाय भाव और सावधानी की अपेक्षा है
यह सावधानी एक से छँटवें किसी भी गुणस्थान में आ सकती है
जीव रक्षा के भाव से प्रवृत्ति करने से
प्राण के व्यपरोपण का दोष अपने आप कम हो जाता है
आजकल सिर्फ व्रती और कुछ अणुव्रती ही यत्नाचार में प्रवृत्ति करते दिखते हैं
हमने जाना कि जितना हम प्रमाद से बचेंगे,
उतना हम भीतर से सावधान होंगे
और हमारे अंदर जीव रक्षा का भाव आएगा
जो हमें हिंसा से बचाएगा
कुछ लोगों को लगता है उनसे कभी हिंसा हुई ही नहीं है
जैसे जो लोग neat clean office में या work from home job करते हैं
उनके खाने, पीने, उठने, बैठने, सोने आदि में कहीं जीव हैं ही नहीं
तो हिंसा का प्रयोजन कैसे?
मुनि श्री ने समझाया कि ऐसा भाव रखने वाले लोगों में एक तरीके से अहं आ जाता है
मद सा छा जाता है
उन्हें अपने अंतरंग प्रमाद का एहसास ही नहीं होता
उन्हें लगता है कि वो जो कर रहे हैं, सब सही है
बहिरंग प्रमाद दिख जाता है
जैसे हाथ से glass छूटना
या पैर में लोच खा जाना
लेकिन भीतरी प्रमाद बहुत गहरी चीज है
हमें समझ नहीं आता
जब तक हम भीतर से सावधानी का, जीव दया का भाव नहीं रखेंगे
तक हम हिंसा के भागी बने रहेंगे
चाहे हम हिंसा करें या न करें
सावधानी नहीं रखना ही तो प्रमाद है
प्रमाद के कारण स्व या पर के प्राणों का घात होता है, दुःख होता है
मगर प्रमादी व्यक्ति को असावधानी से की गई प्रवृत्तियों में भी
भीतरी प्रमाद के चढ़े नशे के कारण
अपने प्राणों का घात, पता ही नहीं चलता
इसलिए वह खुद को सुखी मानता है और आनंदित होता है
हमारे अंदर प्रमाद नहीं है - यह मानना ही सबसे बड़ा प्रमाद है
हमने समझा कि प्रमाद करते समय तो सुख प्राप्त हुआ, ऐसा दिखाई देता है
लेकिन आत्मा को निरंतर बाहरी कारणों से सुखी बनाने की
और दुःख से बचाने की कोशिश भी एक भीतरी दुःख ही है
मनचाहा enjoyment मिलने में
और उसके प्रयास में भी दुःख है
जिसे हम महसूस नहीं करना चाहते
और उसी में सुख मानते हैं
मुनि श्री ने एक बहुत ही simple और logical बात बताई
अगर हमारी आत्मा अशांत है तो प्राणों का घात चल रहा है
party में बाहर से खुश होना और भीतर आत्मा का शांत होना अगल-अगल बातें हैं
जब आत्मा बिल्कुल peaceful होगी, mind calm and cool होगा
तो उस समय अंदर का भाव प्रमाद रहित होगा
सावधानी से काम करने में शांति होगी
और असावधानी से अशांति
अशांत होने का अर्थ है स्व-प्राण का, चैतन्य प्राण का घात हो रहा है
हिंसा और अहिंसा समझना ही मुख्य है
दुनिया को जब अंदर से शांति की गंध आने लगेगी
तब उसे समझ आयेगा कि प्रमत्त योग से प्राणों का घात हिंसा है
सूत्र चौदह अस-दभिधान-मनृतम् में हमने ‘अनृत’ अर्थात् झूठ को समझा
‘नृतम्’ अर्थात् सत्य और अनृतम् अर्थात असत्य
अभिदान मतलब जो वचन बोले जा रहे हैं
और असद् का मतलब है जो अच्छे नहीं है, अप्रशस्त हैं, अप्रशंसनीय हैं
असत्य में असत् का अभिदान है