श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 18
सूत्र - 10,11
सूत्र - 10,11
पूर्णता में सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती है। गुणस्थान और परीषह। ध्यान और प्रवृत्ति में परीषह का अनुभव समान नहीं होता। क्या भगवान में क्षुधा परीषह होती है?
सूक्ष्म-साम्पराय-छद्मस्थ-वीत-रागयोश्चतुर्दश॥9.10॥
एकादश जिने॥9.11॥
25, oct 2024
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छद्मस्थ वीतराग मुनि के कितने परिषह बताए गए हैं?
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परिषहों के प्रकरण में हमने जाना
बारहवें गुणस्थान तक छद्मस्थ अवस्था रहती है,
उसके बाद केवली भगवान् बन जाते हैं।
केवली असहाय होते हैं।
असहाय का अर्थ यह नहीं
कि कोई उनकी कोई सहायता करने वाला नहीं है
अपितु यह है कि उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है
हमने जाना कि
श्रुत केवली का अर्थ केवली भगवान् नहीं होता।
वे छठवें-सातवें गुणस्थान वाले
वे मुनिराज होते हैं
जिनका श्रुत ज्ञान पूर्ण हो जाता है।
वे श्रुत में केवली अर्थात् असहाय हैं।
यानि श्रुतज्ञानावरण कर्म के उत्कृष्ट क्षयोपशम से,
उन्हें श्रुतज्ञान के लिए
किसी के उपदेश की,
कुछ शास्त्र आदि पढ़ने की
आवश्यकता नहीं रहती।
अपूर्णता में ही सहायता की आवश्यकता पड़ती है।
जैसे दृष्टि में कुछ कमी आने पर ही
चश्में की जरुरत पड़ती है,
अन्यथा नहीं।
इसी तरह केवलज्ञानी को
किसी lens, apparatus,
इन्द्रिय, मन आदि किसी की भी जरुरत नहीं पड़ती।
वे आत्मा से ही सब प्रत्यक्ष जान लेते हैं।
सूक्ष्म-साम्पराय-छद्मस्थ-वीत-रागयोश्चतुर्दश सूत्र में
दो पद हैं-
सूक्ष्मसाम्पराय
और छद्मस्थ-वीतराग
वीतरागयो: शब्द सप्तमी द्विवचन का है।
सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र वाले दसवें गुणस्थान-वर्ती
और ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान-वर्ती मुनियों के-
क्षुधा,
पिपासा,
शीत,
उष्ण,
दंशमशक,
चर्या,
शय्या,
वध,
अलाभ,
रोग,
तृणस्पर्श,
मल,
प्रज्ञा
और अज्ञान,
ये चौदह परिषह होते हैं।
परीषहों का कर्मों के साथ अविनाभावी सम्बन्ध होता है।
परीषह कर्मजन्य होते हैं-
यानि जिस गुणस्थान में
जितने कर्मो का उदय होता है
वहाँ उन कर्मों के साथ रहने वाले परीषह होते हैं।
दसवें, ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानों में
परीषह सम्बन्धित कष्ट नहीं होता
बस उस कर्म के कारण
वहाँ उस परीषह का सद्भाव रहता है।
जैसे ज्ञानावरणीय कर्म से होने वाले
प्रज्ञा और अज्ञान परीषह तो वहाँ रहते हैं
क्योंकि ज्ञानावरणीय का उदय है,
किन्तु ध्यान में उन कष्टों का अनुभव नहीं होता।
इसी प्रकार अन्तराय कर्म से होने वाला
अलाभ परीषह
और वेदनीय से होने वाले
क्षुत्, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक आदि
वहाँ रहते हैं।
सूत्र ग्यारह एकादश जिने में हमने जाना
‘जिने’ अर्थात् ‘जयति इति जिनः’
जिन्होंने सब जीत लिया हो।
घातिया कर्मों को जीतकर
जिन भगवान् बन जाते हैं।
उनमें ग्यारह परीषह होते हैं।
हम इसे अभाव की दृष्टि से भी देख सकते हैं
यानि उनमें ग्यारह परिषह नहीं होते।
आचार्य पूज्यपाद महाराज के अनुसार सूत्र में अध्याहार करके
नहीं होते हैं,
ऐसा लगाना।
ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान-वर्ती मुनियों के बताये गए चौदह परिषहों में से
जिनेन्द्र भगवान् के
ज्ञानावरणीय कर्म के आभाव में प्रज्ञा और अज्ञान परीषह
और अन्तराय कर्म के आभाव में अलाभ परीषह नहीं होते हैं
शेष ग्यारह होते हैं।
अतः सिद्धान्त के अनुसार जिनेन्द्र भगवान में वेदनीय के उदय में
क्षुधा, पिपासा, शीत आदि
ग्यारह परिषहों का सद्भाव रहता है।
श्वेतांबर सम्प्रदाय इसी कारण से केवली भगवान को कवलाहारी मानते हैं
चूँकि उनमें क्षुधा परीषह का सद्भाव है
वेदनीय कर्म के उदय से उनमें वेदना है
और असाता वेदनीय के उदय में भूख लगती है
इसलिए वे क्षुधा दूर करने के लिए कभी-कभी कवलाहार लेते हैं
यह एक बड़ा सैद्धान्तिक दोष आ जाता है।
दिगम्बरों में केवली भगवान को कवलाहारी नहीं कहा गया
यह तर्क ठीक है कि उनके साता असाता वेदनीय का उदय होता
क्योंकि अभी वेदनीय का अभाव नहीं हुआ
लेकिन केवल इतने मात्र से परीषह या कष्ट इतना नहीं हो जाता कि
वह उनके लिए भूख का प्रतिकार करने के लिए उन्हें भोजन करा दे
आगे-पीछे का जाने बिना
अपना नया अभिप्राय बनाकर
कुछ लोगों को बहकाकर
लोग आपका मत तो मानने लग जाते हैं
लेकिन बात अधूरी रह जाती है
इस सैद्धांतिक दोष का खंडन हम आगे जानेंगे