श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 04
सूत्र - 02
सूत्र - 02
बाह्य एवँ अंतरंग मौन ही वास्तव में वचनगुप्ति है। आसन की स्थिरता कायगुप्ति है। समीचीन तरीके से प्रवृत्ति करना ही समिति है। गुप्ति और समिति दोनों संवर का कारण है। दशधर्म साधु हमेशा अपने अंतरंग में धरते हैं। बारह भावनाओं का निरन्तर चिन्तन धर्म में दृढ़ता लाता है।
स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजयचारित्रै:॥9.02॥
04, oct 2024
Suman Jain
Mumbai
WINNER-1
मोहित जैन
बैंगलोर (HAL)
WINNER-2
Virendra kumar jain
Budhar MP
WINNER-3
समीचीन तरीके से प्रवृति करना क्या है?
गुप्ति
समिति*
हठ योग
अनुप्रेक्षा
आज हमने संवर के चार कारण - गुप्ति, समिति, धर्म और अनुप्रेक्षा को जाना
गुप्ति अर्थात् आत्मा की रक्षा करना
इसके तीन भेद हैं-
मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति
ये तीनों व्यवहार और निश्चय- दोनों रूप होती हैं।
इनसे मन-वचन-काय की क्रियाओं से होने वाला
कर्म आस्रव, पूर्णतया रुक जाता है।
इसलिए ये प्रमुख हैं।
मन को बाहरी चिन्ताओं और कलुषताओं से रोकना व्यवहार मनोगुप्ति होता है।
और मन का शुद्ध आत्मस्वरूप में ही लीन हो जाना निश्चय मनोगुप्ति।
व्यवहारिक वचन गुप्ति का अर्थ है-
वचन संभाल कर,
समिति के साथ,
बिना किसी पाप प्रवृत्ति के बोलना,
विकथा नहीं करना और,
मौन का अभ्यास करना।
इसमें बोलने की इच्छा हो सकती है,
क्योंकि इच्छा का अभी नाश नहीं हुआ।
निश्चय वचन गुप्ति में भीतर से, मन से
बिल्कुल मौन हो जाता है,
इसमें बोलने की इच्छा ही नहीं रहती।
बाहर से चुप रहना तो आसान है,
पर मन में बोलने का विकल्प ही नहीं उठना, बड़ी चीज है।
श्रमण श्रम करता है, मुनि मन से मौन होता है,
और यति यतन से गुण पालता है
स्थिरता से एक आसन में बैठना व्यवहारिक कायगुप्ति होती है
इसमें हमें आसन का, झुनझुनी चढ़ने का ज्ञान रहता है,
पर हम उसे सहन करते हैं।
आसन की स्थिरता हो जाना,
किसी भी परिषह, उपसर्ग में आसन का विचलन न होना,
निश्चय कायगुप्ति होता है।
यह कायोत्सर्ग, पद्मासन जैसे आसनों की स्थिरता से होती है,
कुर्सी पर बैठने से नहीं!
संवर का मुख्य कारण गुप्ति है।
और गुप्ति में असमर्थ होने पर समिति का आलम्बन लेना होता है।
सम्यक् प्रकार से, समीचीन तरीके से,
‘इति’ अर्थात् प्रवृति करना समिति होता है।
यह प्रवृत्ति जीव दया के भाव के साथ होती है,
इसलिए समिति से प्रवृत्ति करने से संवर होता है
और कृत-कारित-अनुमोदना किसी भी प्रकार से पाप कर्म का बन्ध नहीं होता।
एक योद्धा की तरह साधु, समिति रूपी कवच से
अपने कर्मों का संवर और निर्जरा करते हैं।
गुप्ति के बाद समिति से संवर होना-
उनकी गलत अवधारणा को तोड़ता है
जो मात्र गुप्ति में, ध्यान में होने पर ही साधुत्व मानते हैं
प्रवृति में नहीं!
संवर के ये सभी कारण आपस में linked हैं,
आगे वाली चीज पीछे वाले की सहयोगी है,
उसकी रक्षा करती है।
समितियों की रक्षा दशलक्षण धर्म करते हैं,
जिन्हें हम तो बस दस दिन करते हैं,
पर साधु आजीवन अपने अंतरंग में धरते हैं।
ये समिति में प्रवृति के समय विशेष काम आते हैं,
क्योंकि प्रवृत्ति में-
कभी गुस्से के निमित्त मिलते हैं,
तो कभी कठोरता लाने वाले अहंकार के,
ऐसे में क्षमा, मृदुता धारण करना,
समिति के लिए सहायक होता है।
भीतर दस धर्मों के भाव के साथ प्रवृत्ति करते हुए,
समितियांँ और धर्म - संवर कराते हैं
और प्रवृत्ति करते हुए भी पापबन्ध नहीं होता।
इसलिए समिति का रक्षक होने से
धर्म समिति के बाद आता है।
यह दशलक्षण-रूप धर्म,
प्रवृत्यात्मक समितियों में ही काम आता है।
इससे अन्य, रत्नत्रय-रूप धर्म तो
आत्मा में स्थित जीवों के लिए है।
अलग-अलग time पर अलग-अलग तरीके का धर्म होता है।
धर्म की सहयोगी अनुप्रेक्षा हैं।
अनुप्रेक्षा यानि
‘मुहुर् मुहुर् चिन्तनम्’! बार-बार चिन्तन करना।
इनसे दस धर्मों में दृढ़ता आती है।
दस धर्म का पालन अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व आदि बारह भावनाओं के चिन्तन में मन लगने पर हो पाता है।
इनका एक बार पाठ करने से कुछ नहीं होता
हमेशा चिन्तन करना होता है।
यदि हमें,
किसी ने बुरा बोल दिया,
गाली दे दी,
पत्थर मार दिया,
थूक दिया, कुछ भी कर दिया।
उसी समय हमें संसार, अनित्य भावना भानी है
तभी क्षमा आएगी, नहीं तो हम उबल पड़ेंगे।