श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 44
सूत्र - 14,15,16
सूत्र - 14,15,16
कर्मों के भेद-प्रभेदानुसार स्थिति बन्ध की परिणति। अ) ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति। कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बंध के कारण। कर्म भेद की अपेक्षा स्थिति बन्ध का विवरण। पर्याप्तक-अपर्याप्तक अवस्था की अपेक्षा स्थिति बन्ध। उत्कृष्ट स्थिति बन्ध का जीव की गति की अपेक्षा प्रमाण (गणित)। ब) मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति। मोहनीय कर्म के प्रभेदानुसार स्थिति बन्ध। क) नाम कर्म और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति। नाम तथा गोत्र कर्म में उत्कृष्ट स्थिति बन्ध का जीव की गति की अपेक्षा प्रमाण (गणित)। कर्म भेद की अपेक्षा स्थिति बन्ध की निरंतरता।
आदितस्तिसृणा-मन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपम-कोटी-कोट्यः परा स्थितिः।।8.14।।
सप्तति-र्मोहनीयस्य।।8.15।।
विंशति-र्नाम-गोत्रयोः।।8.16।।
08,July 2024
Reeta Jain
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परा स्थिति: में परा का अर्थ क्या है?
पराया
दूसरा
उत्कृष्ट*
पूर्व
कर्म बन्ध के प्रकरण में आज हमने स्थिति बन्ध समझा
इसका अर्थ है -
कर्म आत्मा में कितने समय के लिए बंधा?
उसमें कितना time set हुआ?
हमारा जीवन तो 100-50 वर्षों का है
पर कर्मों के स्थिति बन्ध असंख्यात वर्षों के पड़े हुए हैं
और अब भी हम असंख्यात वर्षों के बन्ध कर रहे हैं
स्थिति बन्ध एक तरह से अशुभ माना जाता हैं।
स्थिति बन्ध में हमने इसकी unit
सागरोपम और पल्य को समझा।
ये दोनों ही बहुत बड़े-
असंख्यात वर्षों के काल के मापक हैं।
पल्य छोटा, और सागर उससे बहुत बड़ा है।
और एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर कोड़ा-कोड़ी बनता है।
सागरोपम की स्थितियों वाले कर्म बन्धते हैं
यह बहुत बड़ी चीज है।
कर्मों का maximum time limit के लिए आत्मा में bonding होना
उसकी ‘परा’ यानि ‘उत्कृष्ट स्थिति’ होती है
यह नियम से संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक के
उत्कृष्ट संक्लेश के साथ ही होता है।
यानि ये हमें हो सकता है।
एकेन्द्रिय, दो-इन्द्रिय आदि उत्कृष्ट स्थिति नहीं बाँध सकते।
भावों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि ही उत्कृष्ट बन्ध करता है
सम्यग्दृष्टि नहीं
क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश मिथ्यादृष्टि के ही होता है।
अपर्याप्तक संज्ञी पंचेन्द्रिय में
सभी कर्मों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध
पर्याप्तक संज्ञी पंचेन्द्रिय से पल्य का असंख्यातवाँ भाग कम होगा
यानि पल्य के असंख्यात हिस्सों में से एक हिस्सा प्रमाण कम
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, असाता वेदनीय और अन्तराय
कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण है
यानि उत्कृष्ट संक्लेश के साथ बांधे हुए ये चारों कर्म,
तीस कोड़ा-कोड़ी सागर तक हमारे साथ बंधे रह सकते हैं।
साता वेदनीय का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध पन्द्रह कोड़ा-कोड़ी सागर है।
इन ज्ञानावरण आदि चारों कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति
एकेन्द्रिय में - एक सागर के सात भाग में से तीन भाग प्रमाण अर्थात् 3/7 सागर (तीन बटा सात = 3 up on 7)
दो इन्द्रिय में - एकेन्द्रिय से 25 गुना= 25 अधिक 3/7 सागर (25 सही 3 बटे 7 =25 3/7)
तीन इन्द्रिय में - एकेन्द्रिय से 50 गुना= 50 अधिक 3/7 सागर (50 सही 3 बटे 7= 50 3/7)
4 इन्द्रिय में - एकेन्द्रिय से 100 गुना= 100 अधिक 3/7 सागर (100 सही 3 बटे 7= 100 3/7)
और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में- एकेन्द्रिय से 1000 गुना= 1000 अधिक 3/7 सागर (1000 सही 3/7 सागर= 1000 3/7) होती है।
मोहनीय कर्म सबसे बड़ा है
इसका स्थिति बन्ध सबसे अधिक होता है -
सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर
यह मिथ्यात्व नाम के दर्शन मोहनीय कर्म का होता है।
अर्थात् मोहनीय - मतलब मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध सर्वाधिक है।
और चारित्रमोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति है
चालीस कोड़ा-कोड़ी सागर
वहीं, मोहनीय का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध
एकेन्द्रिय में एक सागर,
दो इन्द्रिय में पच्चीस सागर,
तीन इन्द्रिय में पचास सागर,
चार इन्द्रिय में सौ सागर
और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में एक हजार सागर होता है।
नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति
20 कोड़ा-कोड़ी सागर है
यह - एकेन्द्रिय में एक सागर के सात भाग में से दो भाग अर्थात् 2/7 सागर
दो इन्द्रिय में 25 सागर अधिक 2/7 सागर
तीन इन्द्रिय में 50 सागर अधिक 2/7 सागर
चार इन्द्रिय में 100 सागर अधिक 2/7 सागर
और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में 1000 सागर अधिक 2/7 सागर होती है।
कर्मों के उत्कृष्ट स्थिति बन्ध
हमेशा असंख्यात वर्षों की स्थिति को लिए,
निरन्तर बन्धते रहते हैं।
शुभ लेश्या वाले और सम्यग्दृष्टि जीव को भी
यह बन्ध अन्तः कोड़ा-कोड़ी सागर तो अवश्य होता ही है।
‘अन्तः’ मतलब अन्दर,
कोड़ा-कोड़ी सागर के भीतर
मतलब एक करोड़ से लेकर एक कोड़ा-कोड़ी सागर के बीच तक का बन्ध।
ये सब बन्ध नियम से होते रहते हैं
क्षपक श्रेणी में भी!
दसवें गुणस्थान तक भी!
हमें इनका अनुभव नहीं होता।
केवल इन सूत्रों के माध्यम से श्रद्धान होता है।
हमारे संज्ञान में केवल आयु कर्म आता है।