श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 12
सूत्र - 02
सूत्र - 02
सूत्र-१ और सूत्र-२ में असामनता। जीव द्वारा कर्मों का ग्रहण ही “बंध” है। योग और कषाय के माध्यम से स्वतः ही जीव द्वारा कर्मों को ग्रहण करना। सांसारिक मूर्तिक जीव ही कर्मों का ग्रहण करता है, न कि अमूर्तिक सिद्ध भगवान। ‘भ्रान्ति- ‘कर्म अमूर्तिक हैं’। कर्म आत्मा से जुड़ा हुआ एक अलग पृथक द्रव्य है।
सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गला-नादत्ते स बन्ध:॥8.2॥
11th, April 2024
Ritu Jain
Delhi
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ग्रहण करने के अर्थ में कौनसा शब्द प्रयुक्त हुआ?
दा
दान
प्रदान
आदत्ते*
हमने सूत्र एक और दो के अन्तर को अलग-अलग विधाओं से समझा
पहले में बंध के कारण और दूसरे में बंध का कार्य बताया है
सूत्र एक में बताए मिथ्यादर्शन, कषाय आदि पाँच हेतु पूर्व बद्ध हैं
अर्थात आत्मा में पहले से हैं
सूत्र दो का कषायसहितपना नए कर्मबन्ध का मुख्य कारण है
जैसी कषाय होगी वैसा नया बन्ध होगा
इस अन्तर को हम द्रव्य और भाव कर्म रूप में भी समझ सकते हैं
पूर्व में बन्धे हुए मिथ्यात्वादि, पहले से पड़े हुए कषाय रूपी द्रव्य को द्रव्य कर्म कहते हैं
इसके उदय में होने वाला भाव, भाव कर्म है
और उसके अनुसार होने वाला नवीन बन्ध, भाव बन्ध है
पहला सूत्र द्रव्य बन्ध के हेतु बताता है
और दूसरा सूत्र भाव बन्ध के
मुनि श्री ने समझाया कि कषाय दोनों सूत्रों में है
पहले में वह कर्मबन्ध के हेतु के सामान्य भावों में सम्मिलित है
परन्तु दूसरे में वह नए बन्ध कराने वाला विशिष्ट भाव, भाव बन्ध के रूप में है
दोनों सूत्रों का मिलाजुला अर्थ है
बन्ध के कारणों के होने पर
जो कषायवान जीव,
कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है
वह ही बन्ध है, कुछ और नहीं
हमने अलग-अलग विभवक्षाओं में बन्ध शब्द का अर्थ भी जाना
भाव रूप में ‘बन्धनम् बन्ध:’ यानि बन्धने का नाम ही बन्ध है
जैसे पिछले सूत्र में जीव कर्त्ता है और बन्ध कर्म रूप उसका कार्य है
वैसे ही कर्त्ता रूप में बन्ध हमारे लिए संसार बढ़ाने का कार्य करता है
हमने जाना कि जीव के अन्दर पुद्गल ग्रहण करने की क्षमता कषाय और योग से आती है
योग के माध्यम से आत्मा के प्रदेशों में परिस्पंदन होता है
और कषाय की तीव्रता आदि के अनुसार वह कर्म को ग्रहण करता है
यहाँ आदत्ते शब्द ग्रहण के अर्थ में तो है
लेकिन जीव, लोक में फैली हुई, कर्म वर्गणाओं को नहीं खींचता या पकड़ता
बल्कि आत्मा प्रदेशों पर बैठे हुए कर्मों को ही आकर्षित करके बन्ध करता है
पहले से बन्धा हुआ मूर्तिक कर्म ही नये मूर्तिक कर्म को ग्रहण करता है
जीव कर्म से सहित है इसलिए वह कर्म को ग्रहण कर लेता है
कर्म रहित अमूर्तिक जीव, मूर्तिक कर्म को ग्रहण कर नहीं पाएगा
क्योंकि अमूर्त में बन्ध नहीं होता
जैसे अमूर्त आकाश में कोई भी बन्धन नहीं होता
बन्धन मूर्त में मूर्त के साथ ही होता है
इसलिए हम कर्म को कभी अमूर्त नहीं कह सकते
सिद्ध भगवान के आत्मप्रदेशों पर भी कर्म वर्गणाएँ विद्यमान होती हैं
लेकिन वे कषाय के अभाव में,
आत्मप्रदेशों में गीलापन, चिकनापन के अभाव में
उनको ग्रहण नहीं करते
वैसे ही जैसे सूखी दीवार पर धूल नहीं चिपकती
संसारी जीवों में कषाय के कारण से यह कर्म का ग्रहण अपने आप होता है
जैसे उदर में पहुँचे भोजन पर system अपना काम करता रहता है
कुछ लोग कर्म को अमूर्त मानते हैं
वैशेषिक दर्शन में इसे आत्मा का गुण मानते हैं
जो अदृश्य गुण के कारण अमूर्त है
लेकिन जैनाचार्य अनुसार अमूर्त में बन्ध संभव नहीं है
तथा चूँकि द्रव्य कभी भी गुणों से रहित नहीं होता है
इसलिए कर्म आत्मा का गुण नहीं हो सकता
अन्यथा आत्मा कभी भी कर्म रहित नहीं हो सकती
सूत्र के अनुसार कर्म पुद्गल हैं अर्थात् पुद्गल है, मूर्त है
यह आत्मा से जुड़ा पृथक द्रव्य है
इस प्रकार हमने आत्मा के भीतर की chemistry और अनादिकालीन कर्मबन्ध की व्यस्था को समझा
जीवात्मा के प्रदेश
जीवात्मा में भरे हुए कर्मबन्ध के पाँच हेतु
कषाय भाव से आने वाले नए कर्मबन्ध
और इनके कारण से नोकर्म और यह सारा संसार शुरू हो जाता है