श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 53
सूत्र -36,37
सूत्र -36,37
अत्यन्त विशुद्धि पूर्वक धर्म ध्यान उपरान्त उन्मुख होते हैं- शुक्लध्यान में। शुक्लध्यान - उपशम श्रेणी तथा क्षपक श्रेणी की अपेक्षा से। गुणस्थान की दृष्टि से उपशम श्रेणी तथा क्षपक श्रेणी की यात्रा में अन्तर। उपशमन श्रेणी से उतरना, एक अनिवार्य स्थिति। क्षपक श्रेणी में होता है- केवल आरोहण। उपशम श्रेणी का यथार्थ विवेचन। शुक्लध्यान की प्रक्रिया। धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान में अन्तर। यथाख्यात चारित्र- मोहनीय कर्म के क्षय से या उपशम उत्पन्न होने वाला चारित्र। कर्मो के क्षय तथा उपशम में अन्तर। शुक्लध्यान की शर्ते। पहली शर्त- शुक्लध्यान के स्वामी 12 अंग, 14 पूर्व के ज्ञाता होते हैं। ध्यान में रहने के लिए होती है- द्रव्य श्रुत, ज्ञान की जरुरत।
आज्ञापाय-विपाक-संस्थान-विचयाय धर्म्यम्॥9.36॥
शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः॥9.37॥
27, Jan 2025
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उपशम श्रेणी का अंतिम पड़ाव कौनसा गुणस्थान है?
आठवाँ
दसवाँ
ग्यारहवाँ*
बारहवाँ
ध्यान के प्रकरण में आज हमने जाना कि
शुक्लध्यान उन्हीं जीवों को होता है
जो मोक्ष के अत्यन्त निकट होते हैं।
इससे ही जीव सभी कर्मों का नाश करके
केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त करते हैं।
यह केवल ध्यान अवस्था में ही होता है।
यानी इसमें किसी भी तरह की प्रवृत्ति नहीं होती।
जबकि धर्मध्यान निवृत्ति के साथ-साथ
प्रवृत्ति में भी होता है।
यह निर्विकल्प भी होता है और सविकल्प भी।
इसलिए श्रेणी से पहले धर्मध्यान
और श्रेणी में सिर्फ़ शुक्लध्यान होता है।
श्रेणी मतलब सीढ़ियाँ जिन पर चढ़कर जीव केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त करते हैं।
धर्म ध्यान से विशुद्धि बढ़ाते-बढ़ाते जीव कषायों को,
मोहनीय कर्म को
पूर्णतया उपशमित करते हुए उपशम श्रेणी चढ़ता है
और जब वह उनका क्षय करता है तब क्षपक श्रेणी चढ़ता है।
उपशम श्रेणी में मोहनीय कर्म का आत्मा में अस्तित्व तो रहता है
पर वह पूरा दब जाता है,
उसका कोई प्रभाव नहीं होता।
और क्षपक श्रेणी में आत्मा से उसका अस्तित्व ही नष्ट हो जाता है।
ये दोनों प्रक्रियाएँ कभी भी एक साथ नहीं होतीं।
श्रेणियाँ आठवें गुणस्थान से प्रारम्भ होकर बारहवें गुणस्थान तक होती हैं।
क्षपक, दसवें से direct बारहवें में पहुँचता है।
और फिर नियम से केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है।
उपशम श्रेणी वाला जीव दसवें से ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है।
और फिर वापिस लौटता है।
श्रेणी चढने का महत्त्व नहीं पता होने के कारण
लोग वापिस लौटने को अपमानजनक तरीके से बोलते हैं कि
जीव ग्यारहवें से गिर गया,
चौथे में आ गया,
जैसे उसने बहुत बड़ी गलती कर दी हो।
अपने पुरुषार्थ से मोह का उपशमन करके
वह जीव इतनी विशुद्धि बढ़ा लेता है कि
उसमें शुक्ल ध्यान की शक्ति पैदा हो जाती है।
यह शुक्लध्यान बहुत बड़ी प्रक्रिया होती है।
जो एक बार शुक्लध्यान कर लेता है
उसे दोबारा शुक्लध्यान करने में बहुत आसानी होती है।
वह नियम से मोक्ष जाएगा।
बिना कर्म के क्षय के केवलज्ञान नहीं होता
इसलिए उसे वापिस आना होता है।
जब वह कर्मों का क्षय करेगा तो
क्षपक श्रेणी चढ़कर मोक्ष पहुँच जाएगा।
ध्यान में प्रक्रियाएँ बुद्धिपूर्वक नहीं होतीं।
मैं कहाँ? क्या ध्यान कर रहा हूँ?
उस ध्यान में क्या हो रहा है?
हमारी विशुद्धि कैसे बढ़ती जा रही है?
ये सब चीजें हम भगवान की वाणी से ही जान सकते हैं।
अपने ज्ञान से नहीं।
शुक्लध्यान यानी ध्यान की उस प्रक्रिया में उतरना
जहाँ पर अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण जैसे करण परिणामों से
वह चारित्र मोहनीय की सत्ताईस प्रकृतियों को दबा देता है।
उपशमन से भी आत्मा में वही यथाख्यात चारित्र पैदा होता है
जो क्षय से होता है।
दोनों को आत्मस्वभाव की समान अनुभूति होती है।
बस कर्मों का खेल अलग तरह से चल रहा होता है
जैसे फिटकरी आदि डालकर मिट्टी को नीचे दबाकर शुद्ध किये पानी
और मिट्टी को glass से बिलकुल अलग करके शुद्ध किये पानी
की शुद्धता में कोई फर्क नहीं होता।
ऐसे ही उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी के जीव की विशुद्धि,
उनके चारित्र की निर्मलता एक ही होती है।
सूत्र सत्ताईस शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः के अनुसार
आद्ये यानि शुरू के दो शुक्लध्यान
पूर्वविद यानि - पूर्वगत शास्त्रों के वेत्ता को ही होते हैं।
आर्त, रौद्र, धर्म, और शुक्ल चारों ही ध्यान चार-चार प्रकार के होते हैं।
श्रुतज्ञान का वर्णन करने वाले
बारह अंग और चौदह पूर्व द्रव्य श्रुत कहलाते हैं।
बारहवें अंग के भेदों में पूर्व आते हैं।
इन सबका पूर्ण ज्ञान श्रुतकेवली को ही होता है।
बारह अंग और चौदह पूर्वों के ज्ञाता, श्रुतकेवली
उपशम या क्षपक श्रेणी चढ़ने के लिए समर्थ होते हैं।
इसलिए उन्हें शुक्लध्यान हो सकता है।