श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 50
सूत्र - 23,24
सूत्र - 23,24
ततश्च निर्जरा॥8.23॥
नाम-प्रत्ययाःसर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैक क्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्त प्रदेशाः।।8.24।।
19,July 2024
Naina Soni
Indore
WINNER-1
Rishab Jain
Ghaziyabad
WINNER-2
Snej Lata Jain
Bijnor
WINNER-3
नाम-प्रत्ययाःसर्वतो… में सर्वतो का क्या अर्थ है?
हर भव में*
सब जगह से
सब समय में
सब नामों के साथ
अनुभव बन्ध के प्रकरण में हमने जाना-
कर्मों का अपने समय पर उदय में आकर, फलानुभव कराकर, आत्मा से झड़ना - सविपाक निर्जरा है।
इससे संसार चक्र नहीं रुकता,
क्योंकि इसमें जितने कर्म फल देते हैं, उतने बंधते भी हैं।
जितना storage में है, वह store में पड़ा रहता है,
ये balance हमेशा maintain रहता है।
कर्म को समय से पहले खपाना
यानि बलपूर्वक उन्हें उदय में लाकर, उनका अनुभव कर, खिरा लेना- अविपाक निर्जरा है।
यह विशेष साधनों से होती है।
इससे ही आत्मा में कर्म का भार हल्का होता है।
दोनों निर्जरा में हमें फलानुभव होता ही है।
अविपाक निर्जरा में कष्ट हो सकता है,
कर्म अच्छा या बुरा कैसा भी फल दे सकते हैं।
हमारे तप करने, व्रत लेने, या कोई नियम पालने से-
जो कर्म बाद में धीरे-धीरे अपना फल देते,
वो नियम के प्रभाव से एक साथ आ जाते हैं।
यानि व्रतों से हमें कष्ट भी मिल सकते हैं।
लेकिन कर्म निर्जरा हुए बिना हमें व्रतों का फल कभी अनुभव में नहीं आता।
फल सहन करने से ही बुरा कर्म store से निकलता है।
यदि हम अभी पुरुषार्थ से नहीं निकालते,
तो वह जब उदय में आएगा, तब disturbance पैदा करेगा,
हमने जाना-
यदि पूर्व में किये कर्म का प्रभाव ज्यादा होता है,
तो हमारा पुरूषार्थ भी हमारे काम नहीं आता।
जैसे अभी पूजा-भक्ति करने पर भी, हमारे असाता का अभाव नहीं होना-
क्योंकि हमारा पिछला कर्म strong है,
और वर्तमान पुरुषार्थ इतना strong नहीं कि हम उसे दबा पाऍं,
control कर पाऍं
या उसके रस को divert करके,
साता में convert करके, उसे निकाल पाऍं।
ऐसे में हमें समभाव रखना चाहिए,
बौखलाना, आकुलित होना या चिल्लाना नहीं चाहिए।
हम समभाव और शान्ति से ही उपचार कर सकते हैं।
शान्त भाव से कर्मफल का अनुभव करने से अविपाक निर्जरा होती है।
सूत्र चौबीस नाम-प्रत्ययाःसर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैक क्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्त प्रदेशाः में हमने प्रदेश बन्ध जाना
जहाँ प्रकृति बन्ध प्रकृति के अनुसार आत्मा में कर्म का बंधना होता है,
उसमें time पड़ जाना- स्थिति बन्ध होता है,
उसके फल में अच्छा या बुरा रस आ जाना- अनुभाग बन्ध होता है।
वहीं, प्रदेश बन्ध का अर्थ होता है -
उन कर्म के परमाणुओं की संख्या।
वह कर्म परमाणु एक बार में कितनी संख्या में हमारी आत्मा में बंधते हैं।
हमने प्रदेश-बन्ध के 2 विशेषण जाने-
पहला, ‘नाम प्रत्ययाः’ अर्थात् ये प्रदेश बन्ध, नाम के कारण से होते हैं।
जिस कर्म का जैसा नाम है, उस नाम के कारण से-
उतने प्रदेश,
उतने परमाणु,
उतनी सॅंख्या के- उसमें अपने आप चले जाते हैं।
कर्म परमाणु अपने क्रम से आठ कर्मों में विभाजित होते हैं।
बन्ध तो केवल एक कार्मण शरीर के रूप में होता है,
लेकिन आत्मा में होते ही वह-
अगर आयु का बन्ध हो रहा होगा तो आठ,
अन्यथा सात कर्मों में divide हो जाता है।
वह द्रव्य, quantity किसको कितनी मिलेगी,
यह गणित अपने-अपने नाम के अनुसार चलता है।
वेदनीय कर्म को सबसे ज़्यादा amount मिलता है।
क्योंकि हम सबसे ज्यादा वही अनुभव करते हैं।
दूसरा विशेषण - ‘सर्वतः’
अर्थात् सभी प्रकार के भवों में।
यानि किसी भी आयु वाला भव हो-
नरक, तिर्यंच, मनुष्य या देव,
किसी भी इन्द्रिय वाला कोई भी स्थान हो,
हर भव में प्रदेश बन्ध होता ही है।
और इसके साथ स्थिति, अनुभाग - सभी प्रकार के बन्ध होते हैं।
इसमें आत्मा के स्थान में, आत्मा के प्रदेशों में
कर्मों का एकमेक होकर संश्लेष बन्ध होता है।
जो हर जीव में हर समय चलता रहता है।
यह बन्ध किसी भी भव में छूटता नहीं है।