श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 15
सूत्र - 04
सूत्र - 04
ज्ञानावरण कर्म। दर्शनावरण कर्म। वेदनीय कर्म। मोहनीय कर्म। आयु कर्म। नाम कर्म। गोत्र कर्म। अंतराय कर्म।
आद्यो ज्ञानदर्शनावरण-वेदनीयमोहनीयायु-र्नाम गोत्रान्तरायाः॥8.4॥
22th, April 2024
Sonali Jain
परतापुर
WINNER-1
Harshita Jain
Sironj
WINNER-2
Deepa Shah
Mumbai
WINNER-3
आत्मा की शक्ति के प्रकट होने में कौनसा कर्म विध्न डालता है ?
आयु
ज्ञानावरण
मोहनीय
अंतराय*
हमने जाना कि अनेक जीवों की अपेक्षा से कर्म बन्ध तीन प्रकार का भी होता है
अनादि-अनन्त बन्ध अनादि से अनन्त काल तक चलता है
जैसे अभव्य जीव में ज्ञानावरणादि कर्म
अनादि-सान्त बन्ध में अनादि से बंधे कर्म का अन्त हो जाता है
जैसे क्षपक श्रेणी में ज्ञानावरणादि कर्म
और सादि-सान्त बन्ध में बन्ध कुछ विशेष कारणों से होता है
और उनका अन्त भी होता है
जैसे तीर्थंकर नामकर्म जब बन्धता है तो सादि
और चौदहवें गुणस्थान में जब इसका अभाव होता है तो सान्त होता है
इसी प्रकार आहारक द्विक, आहारक कर्म आदि अनेक कर्म सादि-सान्त होते हैं
इसी अपेक्षा में चौथा सादि-अनन्त बन्ध नहीं होता
सम्यग्दर्शन होने पर जब मिथ्यात्व टूटकर सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व का जन्म होता है
तो बन्ध की दृष्टि से यह केवल सत्ता में आना है, बन्ध नहीं
और वह भी केवल अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक ही सत्ता में रहते हैं
बन्ध के चार प्रकार में प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग आते हैं
पाँच प्रकार में पहले सूत्र में वर्णित मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग आते हैं
छह प्रकार में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष
सात प्रकार में इसमें मोह और जुड़ जाता है
आठ प्रकार में ज्ञानावरण आदि भेद आते हैं
सूत्र चार आद्यो ज्ञानदर्शनावरण-वेदनीयमोहनीयायु-र्नाम गोत्रान्तरायाः में हमने आद्या मतलब पहले प्रकृति बन्ध के आठ भेद जाने
ज्ञान-दर्शनावरण में आवरण शब्द ज्ञान और दर्शन दोनों के साथ है
पहले ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव ज्ञान के ऊपर आवरण डालना है
जैसे मूर्ति के ऊपर डाला हुआ कपड़ा हमें उसका सही स्वरूप नहीं समझने देता
दूसरा दर्शनावरण कर्म आत्मा के दर्शन गुण को आवरित करता है, बाधा पहुँचाता है
यहाँ दर्शन का अभिप्राय श्रद्धा से नहीं, देखने से है
जैसे द्वारपाल हमें gate पर ही रोककर, अन्दर तक नहीं जाने देता
तीसरा वेदनीय कर्म आत्म-संवेदन से परे, पुद्गलों का ही संवेदन सुख-दुःख रूप कराता है
जिसे हम सुख-दुःख कहते हैं वह वस्तुतः वेदनीय कर्म का ही अनुभव होता है
आचार्यों ने इसे शहद लिपटी तलवार की उपमा दी है
जिसमें दुःख भी है और सुख भी
तलवार से मुँह कटने का दर्द भी और शहद का सुख भी
चौथा मोहनीय कर्म आत्मा के अन्दर पर पदार्थों से मोह उत्पन्न करा देता है
उसे मोहित कर देता है
इसके कारण आत्मा स्व और पर को सही ढंग से नहीं जानता
जैसे मदिरा पिए हुए व्यक्ति को अपना कुछ भी ज्ञान नहीं रहता
पाँचवाँ आयु कर्म जीव को शरीर में बांध कर रखता है
इसके पूर्ण होते ही आत्मा शरीर छोड़ देता है
यह साँखल के समान है
छटवाँ नाम कर्म एक चित्रकार की तरह
जीव के अनेक प्रकार के शरीर बनाता है
और उसे नारकी आदि के शरीर प्रदान करता है
सातवाँ गोत्र कर्म जीव को उच्च या नीच बनाता है
जैसे कुम्हार मिट्टी को घड़ा या पैर में रोंदने वाली चीज बनाता है
अन्तिम अन्तराय कर्म आत्मा की अनेक शक्तियों, लब्धियों जैसे ज्ञान, दर्शन, भोग, उपभोग, वीर्य को बाधित करता है
यह भोजन के हिसाब-किताब के लिए नियुक्त भण्डारी की तरह
भोजन आदि होने पर भी, उन्हें लेने नहीं देता
वस्तु को समय पर काम में नहीं आने देता
इससे आत्मा की ही शक्तियाँ प्रकट नहीं हो पाती और वह उनके अभाव में रहती है
हमने जाना कि सभी कर्म एक ही पुद्गल कर्म से पैदा होते हैं
बन्ध के समय परिणमित प्रकृति को
वे स्थिति बन्ध पूरा होने तक बनाकर रखते हैं
इन आठ कर्म प्रकृतियों का स्वभाव, काम अलग-अलग है
कोई एक-दूसरे को बाधित नहीं करती
गोम्मटसार कर्मकाण्ड की शुरुआत इसी प्रकृति बन्ध से होती है
क्योंकि स्वभाव जाने बिना हम कर्मों के स्वरूप को नहीं जान सकते