श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 05

सूत्र - 08,09

Description

देव, मनुष्य और तिर्यंच सभी में प्रविचार पाया जाता है। ऐशान स्वर्ग से आगे के स्वर्गों के देवों के द्वारा किस प्रकार प्रविचार होता हैं? रूप प्रवीचार का मतलबअन्त के चार स्वर्गों में मन प्रविचार होता हैसोलहवें स्वर्ग के आगे ग्रैवेयक आदि देव प्रविचार से रहित होते हैंमनुष्यों में भी इस वेदना की तीव्रता एक समान नहीं होतीआज बहुत से दार्शनिक 'ब्रह्मचर्य जैसा कोई व्रत नही होता' ऐसी गलत व्याख्याएँ करते हैंहमेशा से ही लोगों के द्वारा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया जाता रहा हैमनुष्य के भीतर इन वेदनाओं की वृद्धि का कारण संक्‍लेश परिणाम और बाहरी आडम्बर हैमनुष्य अपने शुभ भावों के द्वारा इन वेदनाओं पर नियन्त्रण प्राप्त कर सकता हैव्यक्ति के अन्दर वासना के परिणाम प्रकार बढ़ने का क्रमअशुभ भावों में पड़े रहोगे तो अशुभ ही तरह के विचार आएँगे

Sutra

शेषा:स्पर्श-रूप-शब्द-मन:प्र विचारा:॥8॥

परेऽप्रवीचाराः॥9॥

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WINNERS

Day 05

19th Dec, 2022

मधु जैन

गाजियाबाद

WINNER-1

Leena jain

Firozabad

WINNER-2

Ranjana jain

Mumbai

WINNER-3

Sawal (Quiz Question)

सहस्रार स्वर्ग में कौनसा प्रवीचार होता है?

  1. मन प्रवीचार

  2. शब्द प्रवीचार*

  3. रूप प्रवीचार

  4. स्पर्श प्रवीचार

Abhyas (Practice Paper):

https://forms.gle/VFrQtuJuQu24Lyya8

Summary


  1. हमने जाना कि असाता-वेदनीय कर्म के उदय से हमें भूख-प्यास आदि के दुःख उत्पन्न होते हैं

    • और भोजन आदि करके हम उस दुःख का प्रतिकार करते हैं

    • यह दुःख आहार संज्ञा के कारण होता है

    • इसी तरह यहाँ पर वेद नोकषाय के उदय से उत्पन्न वेदना के प्रतिकार की बात चल रही है, इसे प्रवीचार कहते है

    • यह वेदना मैथुन संज्ञा के कारण होती है

  2. देव, मनुष्य और तिर्यंच सभी में यह प्रवीचार पाया जाता है

    • यह सब जीवों में अलग-अलग ढंग का होता है

  3. भवनवासी, व्‍यन्‍तर, ज्योतिषी, सौधर्म और ऐशान स्‍वर्ग के देव मनुष्य की तरह ही प्रवीचार करते हैं


  1. सूत्र आठ शेषा: स्पर्श-रूप-शब्द-मन:प्रवीचारा: से हमने जाना

    • सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के देव स्‍पर्श मात्र से सुख प्राप्त कर लेते हैं

    • ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्‍तव और कापिष्‍ठ स्वर्ग के देवों में केवल रूप प्रवीचार होते है

      1. यानि देखने मात्र से उनकी सन्तुष्टि हो जाती है

    • शुक्र-महाशुक्र, शतार और सहस्रार स्‍वर्गों में शब्द मात्र से प्रवीचार हो जाता है

      1. उनकी वेदना शान्त हो जाती है

    • अन्त के आनत-प्राणत, आरण और अच्‍युत स्वर्गों में केवल मन में देवांगना का स्मरण करने मात्र से प्रवीचार हो जाता है

  2. ऊपर के देवों में जैसे-जैसे शुभ लेश्‍याएँ होती जाती हैं, वैसे-वैसे उनकी वेदनाओं के अनुभाग कम-कम होते जाते हैं

  3. सूत्र नौ परेऽप्रवीचाराः के अनुसार सोलहवें स्वर्ग के आगे ग्रैवेयक, अनुदिश और अनुत्तर विमान के देवों में किसी भी तरह का प्रवीचार नहीं होता

    • यहाँ देवियों का आवागमन नहीं है

    • और शुक्ल लेश्‍या होने के कारण उनके अन्दर काम वेदना उत्पन्न ही नहीं होती है

    • इनके अंदर असंयमी होते हुए भी प्रवीचार का भाव नहीं आता

  4. इसी तरह मनुष्यों में भी इस वेदना की तीव्रता, लेश्‍या की शुभता-अशुभता पर निर्भर करती है

    • जिनके परिणाम जितने शुभ होंगे, वे उतने ही अपने में सन्तुष्ट होंगे


  1. आज बहुत से दार्शनिक, लोगों को भ्रमित करते हैं कि 'ब्रह्मचर्य जैसा कोई व्रत नहीं होता'

    • मनुष्य बिना संपर्क के रह ही नहीं सकता - चाहे वो समलैंगिक सम्बन्ध हो या विषमलैंगिक सम्बन्ध

  2. जबकि मुनि श्री ने बताया कि ऐसी कोई शाश्वत व्यवस्था नहीं है

    • जीवों में अपनी-अपनी कषाय की मन्दता से, शुभ परिणामों की वृद्धि होने से इन विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त की जाती है

    • यह शाश्वत विज्ञान है

    • स्वामी विवेकानन्द जैसे अजैन चरित्रवान लोगों ने ब्रह्मचर्य का पालन किया


  1. इन वेदनाओं की वृद्धि का कारण संक्‍लेश परिणाम, बाहरी आडम्बर और उत्तेजक प्रक्रियाएँ हैं

  2. इनके बढ़ने का क्रम है

    • पहले मनः प्रवीचार

    • फिर शब्द प्रवीचार

    • फिर रूप प्रवीचार

    • फिर स्पर्श प्रवीचार

    • फिर काय प्रवीचार

  3. इस तरह प्रवीचार की मनोवैज्ञानिक व्यवस्था को समझकर हम अपने भावों को समझ सकते हैं


  1. मुनि श्री ने बताया कि भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्‍डग्राम में ऐसे परिवार हैं, जहाँ प्रत्येक परिवार का एक व्यक्ति अपने आप स्वतः स्वप्रेरणा से ब्रह्मचर्य को धारण कर लेता है

    • वे सब अपने को भगवान महावीर का वंशज मानते हैं

    • भावों की शुभता और सात्विकता का जाति से कोई सम्बन्ध नहीं है