श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 55
सूत्र -37,38,39
सूत्र -37,38,39
शुक्लध्यान की योग्यता विशेष, उत्तम संहनन तथा काल। अन्त के 2 शुक्लध्यान केवल केवली भगवान के ही होंगे। श्रुत केवली व केवली भगवान में अन्तर। केवली भगवन्तों के शुक्ल ध्यान के नाम। शुक्लध्यान में होती है- केवल आत्मा की अनुभूति। विशिष्ट तपस्या के अधिकारी होते हैं…विशिष्ट मुनि महाराज ही, उन्हें 14 पूर्वों का ज्ञान होता है। 10 पूर्वी की और 14 पूर्वी की पूजा करते देवता। अभिन्न दस पूर्वी और भिन्न दस पूर्वी का अन्तर।
शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः॥9.37॥
परे केवलिनः॥9.38॥
पृथक्त्वैकत्व-वितर्क-सूक्ष्म- क्रिया-प्रतिपाति-व्युपरत-क्रियानिवर्तीनि॥9.39॥
31, Jan 2025
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श्रुतकेवली को अधिकतम कितने शुक्लध्यान हो सकते हैं?
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शुक्लध्यान के प्रकरण में हमने जाना
यह सिर्फ पूर्वों के ज्ञाता को ही होता है।
लेकिन पूर्वविद केवल शुक्लध्यान नहीं करते।
सूत्र सैंतीस में ‘च’ शब्द बताता है कि
वे धर्म्यध्यान भी करते हैं।
श्रुतकेवली बनकर भी कई साल निकल जाते हैं।
इतने समय धर्म्यध्यान ही होता है।
जैसे श्रुत केवली भद्रबाहु को पंचम काल में शुक्लध्यान नहीं हुआ
और वे छठवें-सातवें गुणस्थान में धर्म्य ध्यान करते रहे।
शुक्ल ध्यान के लिए उत्तम संहनन जैसी योग्यता भी चाहिए होती है।
उपशम श्रेणी चढ़ने के लिए
प्रथम तीन संहनन
और क्षपक श्रेणी के लिए
उत्कृष्ट वज्रवृषभनाराच संहनन अनिवार्य होता है।
सूत्र अड़तीस परे केवलिनः में हमने जाना
‘परे’ यानि अन्त के दो शुक्लध्यान,
‘केवलिन:’ यानि केवली भगवान को होते हैं।
पहले के दो शुक्लध्यान
श्रुत केवलियों को
केवलज्ञान कराते हैं
और बाद के दो शुक्लध्यान अरिहन्त अवस्था में होते हैं।
हमें श्रुतकेवली और केवली के अंतर को भी जाना
श्रुतकेवली में शुक्लध्यान की योग्यता है
लेकिन यह नियम नहीं है कि उन्हें शुक्लध्यान होगा ही
और वे उसी भव से मोक्ष जायेंगे
जैसे श्रुतकेवली भद्रबाहु का समाधिमरण श्रवणबेलगोला में हुआ।
इसके विपरीत केवली भगवान को आयु कर्म का अन्त निकट रहने पर
तीसरा एवं चौथा शुक्लध्यान अवश्य होता है
वे उसी भव से मोक्ष जाते हैं
सूत्र उन्तालीस पृथक्त्वैकत्व-वितर्क-सूक्ष्म- क्रिया-प्रतिपाति-व्युपरत-क्रियानिवर्तीनि में हमने शुक्लध्यान के नाम जानें-
पृथक्त्व वितर्क वीचार,
एकत्व वितर्क अवीचार,
सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति, और
व्युपरत क्रिया निवर्ति।
अन्त में निवृत्ति या निर्वृत्ति नहीं है
निवर्ति है
जैसे इमरती बोलते हैं
ये तीनों शब्द अलग-अलग होते हैं
जैसे धर्म्यध्यान में विचय शब्द आता है
शुक्लध्यान में वीचार शब्द आता है
व में बड़ी ई की मात्रा के साथ, विचार नहीं।
शुक्लध्यान में वीचार, सवीचार, अवीचार - यह सब हम आगे जानेंगे।
जैसे आज हममें धर्म्यध्यान की योग्यता आई है
ऐसे ही कभी हम शुक्लध्यान के भी योग्य बनेंगे।
जब शुक्लध्यान होगा तब हमें पता नहीं होगा कि
उसमें क्या हो रहा है?
उस समय तो वह बस हो रहा होगा
हम आत्मा की विशुद्धि में लीन होंगे।
सर्वज्ञ देव हमें ज्ञान देते हैं
कि शुक्लध्यान में क्या होता है?
जैसे practical lab में जाने से पहले
हमको theory पढ़ाई जाती है कि experiment करते समय क्या होगा
ध्यान की अनुभूति अर्थात् lab में किये practical की अनुभूति अलग होती है
और पढ़ने की अनुभूति अलग।
हमने जाना कि चौदह पूर्व बहुत बड़ी चीज़ होते हैं
अभी तो हमें तत्त्वार्थ सूत्र का ही पूरा ज्ञान नहीं है।
अंगों का ज्ञान तो वस्त्रधारियों को हो सकता है,
आर्यिकाओं को ग्यारह अंग तक का ज्ञान हो सकता है
लेकिन पूर्वों का ज्ञान सिर्फ मुनि महाराज को ही होता है
वो भी उन्हें जिनकी विशेष क्षयोपशम वाली तपस्या हो।
उत्पाद पूर्व, आग्रायणी पूर्व, वीर्यानुपाद पूर्व, अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व, कर्म प्रवाद पूर्व,
ऐसे पूर्वों के नाम तक हमें याद नहीं रहते।
नौवे पूर्व तक पहुँचने पर एक परीक्षा होती है।
उसके बाद विद्यानुवाद नामक दसवाँ पूर्व आता है।
जिसका ज्ञान होने पर देवता आकर विशिष्ट पूजा करते हैं।
इसलिए ऋद्धियों में ‘णमो दस पुव्वीणं’ आता है।
चौदह पूर्वी होने पर भी देवता स्तुति करते हैं।
दस पूर्वी होने पर विद्याएँ सामने आती हैं
जो उनमें विचलित होकर उन्हें स्वीकार कर लेते हैं
उन्हें भिन्न दस-पूर्वी कहते हैं।
उनके ज्ञान की आगे वृद्धि नहीं होती।
और जो विद्याओं से प्रभावित हुए बिना, बिना लालच किये, आगे बढ़ जाते हैं
उन्हें ‘अभिन्न दस-पूर्वी’ कहते हैं।
संयम और तप बढ़ने पर ही
ज्ञान के क्षयोपशम की शक्तियाँ बढ़ती हैं।
इसलिए इन्हें ऋद्धि कहते हैं।
चौंसठ ऋद्धियों के व्रत में हम इन्हीं ऋद्धियों और उनके धारियों को नमस्कार करते हैं।