श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 11
सूत्र - 02
सूत्र - 02
कम ज़्यादा कषायपने भाव से कर्मों का बंध होना। यहाँ जीव का अभिप्राय संसारी जीवों से है, न कि मुक्त (सिद्ध) जीवों से। इस सूत्र में जीव का सिर्फ ‘कर्म के योग्य पुद्गलों का प्राप्त करना’ ही समझना चाहिए। सूत्र-१ और सूत्र-२ में समानता।
सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गला-नादत्ते स बन्ध:॥8.2॥
10th, April 2024
Shweta Jain
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Dharmpuri
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कितने प्राण संसारी जीव के पास हमेशा रहते हैं?
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हमने कर्म की तीन दशाओं को जाना
बंध- कर्म का प्रति समय बंध होता है
उदय- पूर्व बद्ध कर्म प्रति समय उदय में आते हैं और
सत्व- कर्म, किसान के कोठे में पड़े अनाज की तरह, सत्ता में पड़े रहते हैं
यह डेढ़ गुणहानि प्रमाण होते हैं
कर्म की सारी प्रक्रिया सकषायत्वात् यानि कषाय भाव के कारण ही घटित होती है
चूँकि सबका कषाय भाव एक जैसा नहीं होता
जैसी कषाय होगी वैसा ही कर्म बन्ध होगा
तीव्र कषाय में तीव्र बन्ध, मध्यम में मध्यम और जघन्य में जघन्य बन्ध होगा
समयसार जी की गाथा में इसे आहार और उदराग्नि के उदहारण से समझाया है
ग्रहण किया हुआ आहार
उदराग्नि के अनुरूप ही
मांस आदि सप्तधातुओं के रूप में परिणमन करता है
मंद उदराग्नि में अच्छा पौष्टिक भोजन भी धातुओं में परिवर्तित नहीं होता,
उल्टा रोग का कारण हो सकता है
वहीं तेज उदराग्नि में सूखा भोजन भी पुष्ट करता है
उदराग्नि की तरह ही यहाँ पर कषाय भाव है
कषाय के कारण से ही कर्म का परिणमन अनेक रूपों में, अनेक स्थिति, अनुभाग आदि में होता है
कषायपने से सहित जीव कर्म के बन्ध के योग्य हो जाता है
और कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है
हमने जाना कि सूत्र में जीव शब्द कषाय और कर्म से सहित संसारी जीव के लिए आया है
वस्तुतः जीव शब्द की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या भी संसारी जीव के लिए ही बनती है
क्योंकि सिद्ध जीव तो जीवन मुक्त, चैतन्य मात्र होते हैं
और जीव की परिभाषा के अनुसार
जो जीता था, जीता है और जिएगा, वही जीव है
यहाँ जीना वास्तव में चार प्राण - इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास से जीने के लिए आता है
सिद्ध जीव इन प्राणों से रहित होते हैं
इसलिए संसारी जीव को ही कर्म बन्ध होता है, मुक्त जीवों को नहीं
क्योंकि वही कषाय सहित है
जीव शब्द में मुक्त जीवों को लेने से उनमें भी कर्म बन्ध का प्रसंग आ जाएगा
जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है
लेकिन आचार्य ने इसे सीधा-सीधा षष्ठी समासान पद कर्म योग्यान् बनाकर नहीं लिखा
बल्कि अलग विभक्ति रुप में तोड़ा
जिससे इसे पंचमी विभक्ति के साथ भी लगा सकें
और कर्म का सम्बन्ध कषायपने के साथ जोड़ सकें
षष्ठी विभक्ति से इसका अर्थ कर्म के योग्य निकलेगा
हमने जाना कि पुद्गलों के स्कन्ध रूप समूह को वर्गणा कहते हैं
भगवान ने तेईस प्रकार की पुद्गल वर्गाणाएँ बताई हैं
जो हमारे ज्ञान में नहीं दिखतीं
हमें यहाँ कर्म बन्ध के प्रकरण में मन, आहार, शरीर आदि वर्गाणाओं को न लेकर
केवल कर्म के योग्य वर्गणाओं को लेना है
यही जीव से कर्म रूप में बंधती हैं
और निर्जरित होती हैं
लेकिन पुनः कर्म रूप में बंधने की योग्यता रखती हैं
ये वर्गणाएँ पूरे लोक में ठसा-ठस भरी हुई हैं
किसी भी तहखाने, शून्य आदि स्थान में भी जीव का कर्म बन्ध नहीं रुकता
जहाँ पर आत्मा है, वहीं पर उसके लिए कर्म का बन्ध भी होता रहता है
उसी के प्रदेशों पर कर्म बैठे रहते हैं जिसे हम आगे प्रदेश बंध में जानेंगे
क्रियापद आदत्ते अर्थात् ग्रहण करता है से हमने समझा
कि पिछले सूत्र में बताए बन्ध के हेतुओं से होने वाला कार्य कर्म को ग्रहण करना ही है
हमने सूत्र एक और दो के बीच के अन्तर को भी समझा
जहाँ सूत्र एक में मिथ्यादर्शन, कषाय आदि पाँच हेतु हैं
वहीं यहाँ सिर्फ कषाय पर focus है
इसका एक भाव है कि मिथ्यादर्शन आदि हेतु से बंधा कर्म, पूर्व में बंधा हुआ है
और नए कर्म बन्ध के लिए कषायसहितपना मुख्य कारण है
मिथ्यादर्शन आदि पूर्वोक्त हेतु इसके सामान्य कारण हैं, सहायक हैं
विशेष बन्ध जैसे स्थिति, अनुभाग आदि कषाय के ऊपर depend करता है