श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 52
सूत्र -36
सूत्र -36
‘विपाक विचय’ धर्म ध्यान, लाएगा भावों में समता। ज्ञानी और अज्ञानी की सोच में अन्तर। कर्म व्यवस्था की अनिवार्यता का बोध ‘विपाक विचय’ धर्म ध्यान। ‘विपाक विचय’ धर्म ध्यान बचाएगा मूढ़ता से। अज्ञानता वश कैसे हो रहा हम जैनी में भटकाव- ‘विपाक विचय’ धर्म ध्यान केवल मात्र उपाय। धर्म ध्यान के प्रकार - 4) ‘संस्थान विचय’- तीनों लोक के आकार आदि का चिन्तन। देव गति की व्यवस्था का चिन्तन। श्रद्धा पूर्ण ज्ञान, दिलायेगा व्रत लेने का भाव। तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रंथों से मिलेगा लोक के आकार आदि का सही ज्ञान। ‘संस्थान विचय’ धर्म ध्यान की गहनता। परिभाषा- ज्ञान की एकाग्रता ही ध्यान। अच्छे श्रावक का कैसे होगा, धर्म ध्यान?
आज्ञापाय-विपाक-संस्थान-विचयाय धर्म्यम्॥9.36॥
20, Jan 2025
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संस्थान विचय में संस्थान का अर्थ क्या होता है?
आकृति*
समूह
पढ़ने का स्थान
पूजा पद्धति
धर्म्य ध्यान के प्रकरण में हमने जाना
कर्म का चिन्तन करना विपाक विचय धर्म्य ध्यान होता है।
कर्म के फल में विश्वास करने वाले को बाहरी चीज़ों में
हर्ष और विषाद नहीं होता।
वह जानता है कि जब भोगने का समय होगा
तभी कोई चीज़ भोगने में आएगी
कोई ज़बरदस्ती कुछ सुख या दुःख नहीं दे सकता।
जैसे दशरथ, कौशल्या, अयोध्यावासी सभी राम को राजा बनाना चाहते थे
पर अभी उनका समय नहीं आया था
तो उन्हें जंगल जाना पड़ा।
श्री राम के अपने कर्मों के फल ने अन्तराय डाला
कैकेयी ने नहीं।
अज्ञानी, केवल व्यक्ति को देखता है
और दूसरों को दोष देता है।
पर ज्ञानी, हर घटना में कर्म का फल देखता है
और किसी से रोष या राग नहीं करता।
कर्म के अनुसार चीज़ें स्वयं ही अनुकूल-प्रतिकूल हो जाती हैं।
गाड़ी के accident में छह लोग मर जाएँ और एक को खरोंच तक न आए!
सारी precautions के बाद भी लोगों को corona हो गया
और मस्त घुमने वाले बच्चे को कुछ नहीं हुआ!
इनमें हम सिर्फ उस व्यक्ति को नहीं देखें
बल्कि उसके कर्म का फल देखें
जिसने उसे बचा लिया।
कोई भगवान आकर नहीं बचाते।
बिना अच्छे कर्मों के फल के सही श्रद्धा भी नहीं होती
इसलिए आज जैन लोग
उच्च कुल, मन्दिर, मुनि-महाराज सब मिलते हुए भी
जिनेन्द्र प्रभु को छोड़ कर
मिथ्यात्व में पड़े रहते हैं
और अन्यों को पूजते हैं।
कर्म विपाक का चिन्तन करके
हमें उनसे द्वेष नहीं रखना चाहिए।
जब अच्छा कर्म आएगा तभी वे सुधर पाएंगे।
इस प्रकार विपाक के विचय से हमारे परिणाम शान्त रहेंगे।
‘संस्थान’ का अर्थ आकार या आकृति होता है।
लोक में कहाँ पर किस चीज़ की क्या shape है?
तीन लोक किस आकार वाला है?
अधोलोक, मध्यलोक, ऊर्ध्व लोक - किस आकार के हैं?
चारों गतियों में जीवों की क्या आकृतियाँ हैं?
नरकों में, देवों में कितनी height होती है?
भोग भूमि और कर्म भूमि के मनुष्यों की क्या अवगाहना होती है?
सिद्ध भगवान की आकृतियाँ क्या होती है?
देव विमान, कल्पवृक्ष, सुमेरू पर्वत, अकृत्रिम चैत्यालय आदि के आकार
यह सब चिन्तन संस्थान विचय धर्म्य ध्यान होता है,
जो हम तभी कर सकते हैं जब हमें ज्ञान और विश्वास दोनों हो
जैसे यह ज्ञान और विश्वास कि
एक हज़ार योजन के मगरमच्छ भी होते हैं।
कुछ आचार्यों के मत में ‘संस्थान विचय धर्म्य ध्यान’ पाँचवें गुणस्थान तक नहीं हो पाता।
क्योंकि इस तरह के विश्वास और स्मृति समन्वाहार के लिए स्थिरता और ज्ञान चाहिए होता है।
हमने जाना कि देवों में अधिकतर seats तिर्यंच भरते हैं, मनुष्य नहीं
क्योंकि मनुष्य तो संख्यात होते हैं और देव असंख्यात।
तिर्यंच श्रद्धान करके व्रत ले लेते हैं,
पंचम गुणस्थानवर्ती बन जाते हैं
और मर कर सोलहवें स्वर्ग तक पहुँच जाते हैं।
और हम मन्दिर जाते हुए भी ये नहीं कर पाते।
श्रद्धा बढ़ने से ही व्रत लेने के भाव बनते हैं।
अन्यथा सिर्फ पढ़ने से कुछ नहीं होता।
ज्ञान अर्जन करते हुए हमें यह श्रद्धा भी रखनी चाहिए कि
स्वयंभूरमण समुद्र के इतने तिर्यंच चौथे और पंचम गुणस्थानवर्ती हैं
कि वही देवों की seats भर रहे हैं।
हम मनुष्यों से तो कुछ पूर्ती नहीं होती
क्योंकि बहुत कम मनुष्य ही धर्म करते हैं
जब तक शरीर चलता है तब तक हम कुछ करते नहीं,
सुन कर चीज़ों को नकार देते हैं।
और जब शरीर साथ नहीं देता
तब कुछ धर्म करने लायक रहते नहीं।
इसलिए जब तक मेहनत कर पाएं
तब तक हमें धर्म्य ध्यान करने के उपाय करते रहना चाहिए।